नास्तिक अंबेडकरवादी और मुसलमान आदि लोग वेदों पर काल्पनिक जन्नत होने का
आक्षेप करते हैं। राकेश नाथ अपनी पुस्तक "कितने खरे हमारे आदर्श" और
सुरेंद्रकुमार अज्ञात "क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म" में आक्षेप
करते हैं कि वेदों में काल्पनिक स्वर्ग का वर्णन है, इसी के लालच में
हिंदू लोग ईश्वर,आत्मा,वेद आदि का पाखंड करते थे। अर्थात् हिंदुओं का
धर्म-कर्म केवल ये स्वर्ग पाना ही है।
हम अथर्ववेद कांड ४ सूक्त ३४
का प्रमाण देते हैं, जहां पर गृहस्थाश्रम को ही स्वर्ग कहा गया है। दरअसल
सुखविशेष को वेद स्वर्ग कहते हैं। कोई दूसरा ग्रह नहीं है, अपितु सुखद
गृहस्थलोक को ही स्वर्ग कहा गया है। अवलोकन कीजिये:-
मंत्र-१ में
ब्रह्मचर्य को (तपसः अधि) कहा गया है,यानी गृहस्थाश्रम में आने से पहले का
तप।यहां गृहस्थाश्रम को विष्टारी कहा गया है, अर्थात् संतानोत्पत्ति द्वारा
विस्तार करने वाला।
इसके अगले मंत्र में मुसलमान और नास्तिक लोग वेद में इस्लाम की जन्नत जैसा वर्णन होना बताते हैं। मंत्र इस तरह है:-
अनस्थाः पूताः पवनेन शुद्धाः शुचयः शुचिमपि यन्ति लोकम् ।
नैषां शिश्नं प्र दहति जातवेदाः स्वर्गे लोके बहु स्त्रैणमेषास्वामी।।२।।
"जो
अस्थिपंजर नहीं है,अपितु मांसल और हृष्ट-पुष्ट है,आचार से पवित्र है,
पवित्र वायु द्वारा शुद्ध है।विचारों द्वारा शुचि है,वे ही (शुचिम् लोकम्)
शुचि-गृहस्थलोक में प्रविष्ट होते हैं। प्रज्ञानी ईश्वर (एषाम्)इनकी
(शिश्नम्) प्रजनन-इंद्रिय को (न प्र दहति) प्रदग्ध नहीं करता,(स्वर्गे
लोके) स्वर्ग रूप गृहस्थ लोक में इनके (बहु स्त्रैण) बहुत स्त्री समूह होते
हुये भी।।२।।
लोकम्=गृहस्थलोक यथा " अदुर्मंगली पतिलोकमा विशेमं शं
नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे"( अथर्ववेद १४/२/४०)। यहां यह भाव है कि जो
व्यक्ति ब्रह्मचर्याश्रम में रहकर संयम-नियम से जीता है, गृस्थलोक में अनेक
स्त्रियों के होते हुये भी केवल अपनी पत्नी से समागम करता है। परमेश्वर
उसे कर्मफल देकर उसके शिश्नेंद्रिय को दाहरूपी दुष्फल यानी निर्वीर्य
होना,सा अन्य घृणित रोग नहीं होने देता।
यहां कुछ मौलाना लोग अर्थ
लगाते हैं कि यहां पर किसी काल्पनिक स्वर्ग लोक में हूरों की तरह शिश्न से
भोग किया जायेगा। पर ये धारणा बिलकुल गलत है। स्वर्ग केवल सुख का नाम है।
स्वर्ग के और स्वरूप देखें अथर्ववेद ६/१२२/२ में।
इसी सूक्त के ४थे मंत्र में स्वर्ग को भूलोक वाला कहा है:-
विष्टारिणमोदनं ये पचन्ति नैनान् यमः परि मुष्णाति रेतः ।
रथी ह भूत्वा रथयान ईयते पक्षी ह भूत्वाति दिवः समेति ॥४॥
यहां
कहा है कि वीर्यवान गृहस्थी (रथी भूत्वा) रथ स्वामी होकर (रथयाने) रथ
द्वारा जाने योग्य भूलोक में (ईयते)संचार करता है, और (ह) निश्चय से पक्षी
होकर अंतरिक्ष प्रभृति ऊपप के लोकों को अतिक्रांत करके तत्रस्थ निवासियों
के संग को प्राप्त करता है।।४।।
यहां पर 'रथयाने ईयते'- इसकी व्याख्या
सायणाचार्य ने 'भूलोके' की है। इससे ज्ञात हुआ कि मंत्र २ में स्वर्ग लोक
भूलोक में ही है, नाकि किसी काल्पनिक जन्नत का यहां वर्णन है।
मंत्र ६ में कुछ वामपंथी व मुसलमान इस्लामी जन्नत की तरह "शराब व शहद की नहरें" ढूंढ़ते हैं।
घृतह्रदा मधुकूलाः सुरोदकाः क्षीरेण पूर्णा उदकेन दध्ना ।
एतास्त्वा धारा उप यन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुमत्पिन्वमाना उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः ॥६॥
यहां
पर (घृतह्रदाः) घृत के तालाब सदृश महाकाय मटके (मधुकूलाः) मधु द्वारा
किनारे तक भरे हुये मटको(सुरोदकाः) आयुर्वैदिक अरिष्ट व आसववाले मटके
(क्षीरेण) तथा,दूध द्वारा,उदक द्वारा, दधि द्वारा भरपूर भरे मटके, ये सब
गृस्थलोकस्थ व्यक्ति को प्राप्त हो, ऐसा कहा गया है।।६।।
यहां पर
सुरोदकाः= "सुरा उदकनाम" (निघंटु १/१२) अर्थात् संधानविधि द्वारा शुद्ध
किया जल-यह अभिप्राय निघंटु से प्रतीत होता है। साथ ही, सुरा सोमलता का भी
अर्थ देता है। अतः यहां "सुरा" का तात्पर्य शराब की नहरें न होकर
आयुर्वैदिक अरिष्ट व आसव हैं।
( अथर्ववेद भाष्य, पं विश्वनाथ विद्यालंकारकृत, ४/३४)
इस
तरह से पता चला कि वेद में सुखद गृहस्थाश्रम को ही स्वर्ग कहा गया है। यही
सुखद गृहस्थ दूध,घी,शहद आदि वाला होता है। अतः नास्तिकों व मुस्लिमों के
आक्षेप मिथ्या हैं।
संदर्भ ग्रंथ एवं पुस्तकें:-
अथर्ववेद भाष्य- पं विश्वनाथ विद्यालंकार
No comments:
Post a Comment