एक गुरु के दो शिष्य थे- आनंद और
शिव. आनंद एक राजकुमार था, पर
शिव किसान का पुत्र. आनंद घोर आलसी और अहंकारी था, जबकि शिव परिश्रमी और विनम्र था. आनंद
के पिता राजा पृथ्वी सिंह प्रतिवर्ष एक प्रतियोगिता आयोजित करते थे, जिसमें हिस्सा लेने
दूर-दूर से राजकुमार आते थे. उनकी बुद्धि की परीक्षा ली जाती थी और विजेता
को पुरस्कृत किया जाता था. एक बार जब प्रतियोगिता आयोजित हुई तो गुरु
जी अपने दोनों शिष्यों के साथ पहुंचे. जब शिव प्रतियोगी राजकुमारों के बीच बैठने
लगा तो सभी राजपुत्र अपनी जगह से उठ
खड़े हुए और बोले, राजकुमारों
के बीच निर्धन किसान का बेटा नहीं बैठ सकता. राजा पृथ्वी सिंह
बोले, अभी
तुम राजकुमार नहीं शिक्षार्थी हो. इस दृष्टि से तुममें और इसमें कोई
भेद नहीं है.
लेकिन राजकुमारों पर इसका कोई
असर नहीं हुआ. अंतत:
शिव उनसे अलग हटकर बैठ गया. राजा ने प्रश्न पूछा, अगर तुम्हारे समक्ष एक
घायल शेर आ जाए जिसे तीर लगा हो, तो
तुम उसे तड़पता छोड़ दोगे
या उसका उपचार करोगे. प्रश्न सुनते ही राजकुमारों ने एक स्वर से उत्तर दिया कि वे
सिंह को छोड़ देंगे, अपनी
जान संकट में नहीं डालेंगे. लेकिन शिव चुप ही
बैठा रहा. राजा ने उससे पूछा, या
तुम्हारा भी यही उत्तर
है. जो इन राजकुमारों का है? शिव ने कहा, नहीं, यदि मेरे समक्ष एक घायल शेर आ जाए
तो मैं उसका भी तीर निकाल कर उसका उपचार करूंगा,
क्योंकि उस समय उस घायल जीव की जान बचाना मेरा कर्तव्य होगा. मनुष्य
का यही कर्म है. शेर का
कर्म है मांस खाना. अगर स्वस्थ होने के बाद वह मुझे मारकर खा गया तो वह उसका
कर्म है, दोष नहीं. उत्तर
सुन कर राजा पृथ्वी सिंह अपने स्थान से उठ खड़े हुए और बोले, धन्य है वह पिता जिसके तुम पुत्र हो. धन्य है वह गुरु
जिसके तुम शिष्य हैं. तब गुरु ने राजकुमारों से कहा, व्यक्ति की पहचान उसके विचारों उसके कर्म से होती है उसकी वेशभूषा और जाति से
नहीं.....
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