जब हमारे अन्दर के दिव्यगुणों में
भारी वृद्धि होती है. दिव्यगुणों
से युक्त व्यक्ति ही लोकहित के कार्यों में अग्रसर होता है. इस तथ्य को यह मन्त्र इस प्रकार प्रकाशित कर
रहा है:
अग्नेस्तनूरसि वाचो विसर्जनं देववीतये त्वा
गृह्णामि बृहद् ग्रावासि वानस्पत्यरू स-इदं देवेभ्यो हवि: शमीष्व सुशमि शमीष्व।
हविष्कृदेहि हविष्कृदेहि ||यजुर्वेद 1.15||
मंत्र में सात बातों पर विशेष रूप से बाल देते
हुए कहा गया है कि :-
१. अग्नि-
मंत्र कहता है कि हे पिता! तूं
अग्नि का विस्तारक है. अर्थात् तूं ही
अग्नि को बढ़ाने वाला है. अग्नि तेज का भी प्रतीक है. जो भी जीव अग्नि की आराधना
करता है, अग्नि का आत्मसात् करता है, अग्नि के गुण उस
में भी आ जाते हैं. जीव सदा तेजस्वी होना
चाहता है. वह अग्नि के सामान निरंतर आगे बढ़ना चाहता है. इस कामना के साथ ही जीव
कहता है कि हे प्रभु! तेरे ही आशीर्वाद से यह शरीर पूर्ण स्वस्थ बना है तथा तुंने
ही इसे उत्साह से, हिम्मत से , धैर्य से
भरपूर किया है. इससे यह भी स्पष्ट होता है कि अग्नि उत्साह का प्रतीक है, और
जीव धैर्य का प्रतीक है. आलसी व्यक्ति के पास कभी उत्साह नहीं आता, साहस
नहीं आता, हिम्मत नहीं आती. जो सच्चे
अर्थों मे अग्निस्वरूप प्रभु का स्मरण करता है, उसका
शारीरिक स्वास्थ्य सदा उतम रहता है तथा स्वस्थ होने के कारण ही उसके अंदर से अग्नि
की सी ही चमक निकलती है. इस चमक से ही
उसका आभामंडल इस अग्नि के सामन चमकने लगता है.
२. वाचो विसर्जनाम
मंत्र जो दूसरी बात कह रहा है, वह है वाचो
विसर्जनाम अर्थात् बांटने वाला, विस्तार करने वाला प्रचार करने वाला.
इस शब्द का भाव यह है कि उतमता का सदा विस्तार होना चाहिये. अच्छाई जहां से भी
मिले, उसे लेना चाहिए. अत: मंत्र दूसरी बात
पर प्रकाश डालते हुए अपने भक्त को उपदेश कर रहा है की हे जीव! वेद मेरा दिया हुआ
ज्ञान है. मेरा दिया हुआ ज्ञान होने के कारण इसकी उतमता पर संदेह नहीं किया जा
सकता. इसलिए मेरे दिए हुए इस उतम ज्ञान को बढाने में ही विश्व का कल्याण है. अत: हे जीव!
तूं इस ज्ञान को सर्वत्र बांटने वाला बन, इसे
बांटने हुए सदा आगे बढाने वाला बन,
इस ज्ञान का सर्वत्र अर्थात् चहूँ दिशाओ में दान करने वाला बन. तूं जहाँ भी जावे, जहाँ भी
विचरण करे, वहाँ ही इस वेदवाणी के ज्ञान को अपने साथ ले जा
और इसका वहां भी बाँट द्य इस ज्ञान को सदा और सर्वत्र बांटने का कार्य निरंतर कर.
३. देववीतय
मंत्र में जिस तीसरी बात पर प्रकाश डाला गया है वह है देववीतम अर्थात्
दिव्यगुण.दिव्यगुण ही जीव को आगे ले जाने वाले होते हैं. संसार की प्रगति केवल
दिव्य गुणों से युक्त जीव ही कर सकता है. इसलिए प्रभु यहाँ उपदेश करते हुए कह रहा
है कि दिव्य गुणों के उत्पन्न करने के लिए हे जीव! मैं तुझे ग्रहण करता हूँ किसी
भी देश का मुखिया प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति देश के विभिन्न कार्यों के संचालन
के लिए मंत्रियों को ग्रहण करता है, मन्त्री-मंडल विधि का निर्माण करता है
अर्थात् यह मंत्रिमंडल ही नियमानुसार राज्य का संचालन करता है. इस प्रकार ही परमपिता परमात्मा भी इस यज्ञ के
विस्तार में जीवन वाले जीव को मात्र इसलिए ही ग्रहण करते हैं ताकि यह जीव, यह
मानव इस लोक में दिव्य गुणों का प्रचार वा प्रसार करने वाला बने. इन दिव्य गुणों
के प्रचार से संसार को श्रेय मार्ग पर ले जावे, कल्याण
मार्ग पर ले जावे.
४. वृहद ग्रावा असी
मंत्र में चतुर्थ उपदेश करते हुए कहा गया है कि वृहद ग्रावाअसी अर्थात् हे
मानव! तूं विशाल हृदय तथा वेदवाणियों का उच्चारण करने वाला, स्वाध्याय
करने वाला बन. जो भी उपदेष्टा अथवा उपदेश करने वाला व्यक्ति होता है, उसका हृदय विशाल होना आवशायक होता है.
संकुचित हृदय वाला व्यक्ति तो शास्त्रों की ठीक से व्याख्या भी नहीं कार सकता,
जब व्याख्या ही ठीक नहीं कर सकेगा तो उतम उपदेश कैसे करेगा? इसलिए उसका हृदय विशाल होना आवश्यक है.
विशाल हृदय के कारण वह छोटे बिन्दुओं तक के ज्ञान को भी सरलता से आत्मसात् कर लेगा
द्य इस प्रकार से महीनता से ज्ञान को ग्रहण कर उसे अपने तक ही सीमित न कर अपितु
इसे सर्वत्र बांट कर सब की उन्नति का भी कारण बनेगा.
इस प्रकार प्रभु चाहता है कि जीव अपने जीवन में सदैव उसके द्वारा दिए गए वेद
ज्ञान का निरंतर स्वाध्याय करे. इस वेद्वाणियों में दिए उतम गुणों को स्वयं तो
ग्रहण करे ही, साथ ही इसे दूसरों को भी बांटे.
५. वानस्पती:
मंत्र जो पाँचवाँ उपदेश देता है वह है वानस्पतय: अर्थात् हे मानव! तूं अपने जीवन में केवल वनस्पतियोपन्न का ही
सेवन करने वाला बन. तूं सदा भूमि में उत्पन्न हुए अन्न आदि का ही सेवन कर. मांस पर अपना पालन - पौषण करने वाला ना बन. इस प्रकार प्रभु उपदेश कर रहा है कि मांस
मनुष्य का भोजन नहीं है. इसलिए कभी भी मांस - भक्षण न कर सदा शाकाहारी जीवन ही
व्यतित्त कर. इस से स्पष्ट होता है की
मांस मानवीय भोजन नहीं है.
इस प्रकार मन्त्र के इस भाग में परमपिता परमात्मा ने स्पष्ट आदेश दिया है
कि मांस मनुष्य का भोजन नहीं है. मनुष्य का भोजन न होने के कारण हम अपने भोजन में
मांस आदि का कभी प्रयोग न करें.
६. सरू देवेभ्य:
इस मंत्र मे छटा उपदेश करते हुए कहा गया है कि सरू देवेभ्यरू अर्थात्
दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिए हे मानव! तू इस हवीरूप, ग्रहण
करने योग्य इस शाकाहारी भोजन का ही प्रयोग कर. यह निरामिष अर्थात् यह मांस रहित
भोजन ही तुझे शांति देने वाला है. तेरा यह भोजन न केवल यज्ञशेष बने, यह
यज्ञ का शेष तो है ही, इसके साथ ही यह सौम्य भी हो ताकि यह सौम्य भोजन
तेरे स्वभाव को भी सौम्य बनाने का कारण बने तथा इसे सौम्य बनाता हुआ, शांत
बनाता हुआ तुझ में दिव्य-गुणों को बढ़ाने का कारण बने. इस उतम प्रकार से शांति देने
वाले इस सौम्य भोजन के द्वारा तुझे शांति देने वाला बने. इस प्रकार तेरा यह भोजन
हवी देने वाला होने के साथ ही साथ शांति देने वाला भी होगा.
इन शब्दों में प्रभु ने यह तथ्य स्पष्ट कर दिया है कि यज्ञ में मांसादि की
आहुति नहीं दी जा सकती. जब मांसादि की आहुति यज्ञ ग्रहण नहीं करता तो यह भोजन रूप
में कैसे लिया जा सकता है? अर्थात्
नहीं ले सकते. जब यज्ञशेष रूप मांस की आज्ञा नहीं है तो उदर की तृप्ति भी मांस से
करना उतम नहीं हो सकता. कहा भी है कि “ जैसा खाओ अन्न
वैसा बने मन ” अर्थात् मानव वैसा ही बनेगा जैसा वह खावेगा. हम
जानते हैं कि मांस की प्राप्ति क्रूरता से ही होती है. बिना किसी पर अत्याचार किये
मांस मिलता ही नहीं है. इसलिए क्रूरता से
प्राप्त किये मांस रूपी इस भोजन को करने वाला निश्चय ही क्रूर होगा. उतम मानव सदा सौम्य
स्वभाव वाला होता है. सौम्य स्वभाव उसका ही हो सकता है जो सौम्यता व शान्ति से
प्राप्त किया गया उतम भोजन करे. यह भोजन वनस्पतियों से ही मिलता है द्य इसलिए मन्त्र में सदा वनस्पतिक भोजन ही करने का
आदेश दिया गया है.
७. हविष्कृत
मंत्र में सातवां तथा अन्तिम उपदेश करते हुए कहा है कि हविष्क्रितम अर्थात्
इस प्रकार से अपने जीवन को हवी का आहुति के रूप से देने वाले हे जीव! तू मेरे समीप
आ. अर्थात् जो इस प्रकार अपने आप को हवी-रूप बना लेता है, वह प्रभु
की समीपता को पा लेता है. जब मानव अपने जीवन को अपने सर्वस्व को लोक हित में लगा
देता है, जन - कल्याण में लगा देता है ,उसे उस
पिता की समीपता मिल जाती है. एसा बनने के लिए शाकाहारी भोजन का हविरूप होना आवश्यक
है. जब हम पवित्र होना चाहते हैं तो हम पवित्र भोजन करते है. पवित्र भोजन करने वाले
का ही मन पवित्र बनता है. इसलिए हम पवित्र भोजन करें, यह
पवित्रता शाकाहारी भोजन में ही है. क्रूरता से, दुसरे
जीव की ह्त्या से प्राप्त मांस आदि के भोजन में पवित्रता कभी नहीं हो सकती.
सौम्यता कभी नहीं हो सकती, शांति कभी नहीं हो सकती द्य इस लिए सदा
वनस्पतिक भोजन ही करना चाहिए.
डा.अशोक आर्य
No comments:
Post a Comment