हम जब आंखे बन्द करते हैं तो हमें कुछ दिखाई नहीं देता
और जब आंखों को खोलते हैं तो हमें यह संसार दिखाई देता है। इस संसार में सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, नक्षत्र, लोक लोकान्तर आदि अनेक
ग्रह व उपग्रह हैं। इनकी संख्या के बारे में विज्ञान के स्तर से भी माना व कहा
जाता है कि सूर्य, पृथिवी
व उपग्रहों आदि की संख्या अगणित व अनन्त है। हम जिस संसार को आंखों से देखते हैं, जिज्ञासा होती है कि वह
किन मूल सत्ताओं के द्वारा बना है? हम एक दीवार बनाते हैं
तो उसमें ईंटे, सीमेंट, बजरी आदि सामग्री की
आवश्यकता होती है। एक मिस्त्री व मजदूर मिलकर ईंटों की चिनाई करता है। इन सबके
द्वारा दीवार बनती है। इसी प्रकार कोई भी रचना की जाये, उसे बनाने वाले मनुष्य
होते हैं जो जड़ पदार्थों की सहायता से उस रचना को रचते हैं। मनुष्य जो रचनायें
करते हैं उनको पौरूषेय रचनायें कहते हैं। ऐसी रचनाओं की संख्या भी अगणित ही कही जा
सकती है। संसार में हम ऐसी भी रचनायें देखते हैं कि जिन्हें मनुष्य व मनुष्यों का
बड़े से बड़ा समूह भी मिलकर बना नहीं सकता। इन रचनाओं को अपौरूषेय रचनायें कहते हैं।
सूर्य की रचना व उत्पत्ति मनुष्य नहीं कर सकते। पृथिवी व चन्द्र की रचना भी मनुष्य
नहीं कर सकते। पृथिवी पर वायु, जल, अग्नि, आकाश आदि अनेक पदार्थ
हैं जिनकी रचना मनुष्य कदापि नहीं कर सकते। जो रचनायें मनुष्य न कर सकें परन्तु
उनका अस्तित्व हो, उन्हें
ही अपौरूषेय रचनायें कहते हैं। इन अपौरूषेय रचनाओं को किसने, कब व क्यों बनाया? इसके उत्तर पर विचार
करने पर यह निष्कार्ष निकलता है कि संसार में एक सत्य चित्त आनन्द स्वरूप, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अनादि, नित्य, अविनाशी व अमर सत्ता
है। इस सत्ता में अनन्त गुण, कर्म व स्वभाव है। इसके
द्वारा ही सभी अपौरूषेय पदार्थ यथा सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व पूरा
ब्रह्माण्ड बना है। जिस सत्ता से यह ब्रह्माण्ड बना है, उसके ईश्वर कहते हैं।
ईश्वर के विषय में विस्तृत जानकारी हमें वेद से मिलती है। यह वेद ज्ञान ईश्वर का
दिया हुआ ही है। वेदों में ईश्वर का ठीक ठीक अखण्डनीय वर्णन मिलता है जो तर्क व
युक्ति से भी सत्य सिद्ध होता है।
ईश्वर
अनादि व स्वयंभू सत्ता है। जो पदार्थ अनादि होता है वह अविनाशी व अमर भी अवश्य
होता है। जिस पदार्थ का आदि होता वह अन्त अर्थात् नाशवान होता है। ईश्वर के विषय
में यह जान लेने पर कि यह अनादि व अमर है तथा हमेशा रहेगा, इसके साथ यह भी जानना
आवश्यक है कि वह मुख्य मुख्य क्या क्या काम करता है। ईश्वर इस सृष्टि का निर्माण
करता है। सृष्टि का निर्माण करने के साथ इसका नियंत्रक व पालक भी ईश्वर ही है।
ईश्वर ने इस समस्त ब्रह्माण्ड को धारण किया हुआ है। इस जड़ अर्थात् चेतना रहित
निर्जीव सृष्टि को बनाकर ईश्वर इस सृष्टि में वायु, जल, वनस्पतियों आदि की रचना
कर उसे मनुष्य व अन्य प्राणियों को उपलब्ध कराता है। अब जिसके लिए यह सृष्टि बनाई
गई व इसका पालन किया जा रहा है वह सत्ता है जीवात्मा जो कि एक अत्यन्त सूक्ष्म, चेतन, एकदेशी, ससीम, आकार रहित, अल्पज्ञ, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, कर्म-फल के बन्धन में
बंधा हुआ है व दुःखों से बचने की चेष्टा करता है। हम संसार में अरबों मनुष्यों
सहित अनन्त संख्या में पशु, पक्षी
व अन्य प्राणियों के रूप में उनके शरीरों को देखते हैं जिनमें एक जीवात्मा का होना
सिद्ध होता है। वस्तुतः यह सभी जीवात्मायें ईश्वर की शाश्वत प्रजा हैं। सृष्टि
प्रवाह से अनादि व मूल प्रकृति, जिससे सृष्टि की रचना
की गई है, स्वभाव
से नित्य है। प्रत्येक सृष्टि की अवधि पूर्ण होने पर प्रलय होती है और प्रलय की
अवधि पूर्ण होने पर अनादि, नित्य
तथा सृष्टिकर्ता ईश्वर जीवों के लिए सृष्टि का निर्माण करता है। यह क्रम अनन्त काल
से चला आ रहा है और अनन्त काल तक इसी प्रकार से चलता रहेगा। इस
सृष्टि-प्रलय-सृष्टि क्रम का कभी अन्त नहीं होगा। जीवात्मा भी हमेशा से रहने वाली
ईश्वर से भिन्न एक पृथक सत्ता है। इस जीवात्मा के लिए ही ईश्वर को सृष्टि करनी
अवश्य होती है। मनुष्य का जन्म हमें हमारे पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार मिलता
है। यदि अच्छे कर्म अधिक अच्छे होते हैं तो मनुष्य जन्म अन्यथा अन्य निम्न योनियां
प्राप्त हुआ करती हैं। मनुष्य योनि, कर्म व भोग, उभय योनि है जबकि
मनुष्येतर सभी योनियां केवल भोग योनियां हैं। अन्य योनियों में जीवात्माओं को कर्म
करने की स्वतन्त्रता नहीं है। उनके पास बुद्धि न होने से वह मनुष्यों की तरह
विवेकपूर्वक कोई कार्य नहीं कर सकती हैं।
मनुष्येतर
योनियों में पाप कर्मों का भोग समाप्त होने पर उन जीवात्माओं को पुनः मनुष्य योनि
में आने का अवसर मिलता है। मनुष्य योनि में उन्हें अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के
कर्म करने की स्वतन्त्रता होती है। अच्छे कार्य करने वाले प्रोन्नत होकर परजन्म
में श्रेष्ठ मनुष्य योनि में अच्छा जीवन पाते हैं और जिनके कर्म अधिक अच्छे न होकर
बुरे होते हैं, उन्हें
पुनः उन कर्मों का फल भोगने के लिए कर्मों के अनुसार पश्वादि भोग योनियों में जन्म
मिलता है। हमने पिछले जन्म में कुछ अच्छे कर्म किये थे तथा बुरे कर्मों की संख्या
कम रही, इस
कारण हमें इस जन्म में यह मनुष्य योनि मिली है। हम यदि वेदों का ज्ञान प्राप्त कर
ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र
आदि यज्ञ और परोपकार व दान आदि कर्म करें और अविद्यायुक्त कर्मों से बचे रहें तो
हमारी उन्नति होती है। साधना वा सद्कर्म करने का उद्देश्य सुख प्राप्ति व ईश्वर का
साक्षात्कार करना दोनों ही होता है। जिस जीवात्मा वा मनुष्य को ईश्वर का
साक्षात्कार हो जाता है वह जन्म मरण के चक्र वा बन्धन से मुक्त हो जाता है और
मुक्ति की निर्धारित अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक मोक्ष में रहकर पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेता है।
पाठक मोक्ष में जीवात्मा की स्थिति व आनन्द लाभ के विषय में भी जानना चाहेंगे।
इसके लिए हम निवेदन करेंगे कि उन्हें ऋषि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश के नवम्
समुल्लास का अध्ययन करना चाहिये। वहां मोक्ष के सभी पक्षों का विस्तार से तर्क व
युक्ति सहित वर्णन किया गया है जिसका आधार वेद, वैदिक साहित्य व आप्त
प्रमाण हैं। इस प्रकार से इस ब्रह्माण्ड में दो चेतन, अनादि, नित्य, अविनाशी एवं अमर
पदार्थों ईश्वर व जीव की सिद्धि हो जाती है। ईश्वर संख्या में एक है जबकि
जीवात्मायें संख्या में अनन्त हैं और सभी जीवात्मायें एक समान हैं। अब इसके बाद
सृष्टि व इसके उपादान कारण पर विचार करते हैं।
ईश्वर
व जीव ब्रह्माण्ड के दो मौलिक व मूल चेतन पदार्थ हैं। तीसरे पदार्थ जिससे यह
सृष्टि बनी है और जो इसका उपादान कारण है, उस पर विचार करते हैं।
हम सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, वायु, जल आदि अनेक जड़
पदार्थों को देखते हैं। हम देखते हैं कि जड़ पदार्थ छोटे छोटे कणों से मिलकर बने
हुए हैं। इनका सबसे छोटा कण अणु कहलाता है। यह अणु भी परमाणुओं से बना हुआ होता
है। परमाणुओं में भी इलेक्ट्रान, प्रोटान तथा न्यूट्रान
आदि अनेक कण होते हैं। वैदिक साहित्य में इस सृष्टि उत्पत्ति का कारण पदार्थ
जिसमें विकार होकर यह सृष्टि बनी है, त्रिगुणात्मक प्रकृति
कहलाती है। त्रिगुण सत्, रज
व तम माने जाते हैं। सांख्य व वैशेषिक दर्शन में सृष्टि व मूल प्रकृति की चर्चा
है। मूल त्रिगुणात्मक प्रकृति का ही विकार यह समस्त सृष्टि है। यह प्रकृति इस
समस्त सृष्टि का मूल उपादान कारण हैं। निमित्त कारण ईश्वर है जो सर्वव्यापक, सर्वज्ञ एवं
सर्वशक्तिमान है तथा जिसे अनन्त काल से सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व प्रलय करने का
ज्ञान है व सृष्टि की उत्पत्ति की पूर्ण सामर्थ्य भी उसमें है। इस मूल प्रकृति का
पहला विकार महतत्व होता है, इसके
बाद अहंकार बनता है तथा इनसे पांच तन्मात्रायें बनती है। इस क्रम से ईश्वर इस
सृष्टि को बनाता है। सांख्य व वैशेषिक दर्शन को पढ़कर सृष्टि की रचना के वैदिक
सिद्धान्त को जाना जा सकता है जो कि पूर्णतः वैज्ञानिक, सत्य एवं तर्क व युक्ति
से सिद्ध है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में सृष्टि उत्पत्ति का संक्षिप्त वर्णन है।
उससे भी सृष्टि की उत्पत्ति का ज्ञान होता है। इस समस्त दृश्यमान जड़ जगत का मूल
कारण प्रकृति ही है। इसी से सब पदार्थ बने हैं। मनुष्यों, पश्वादि के शरीर व
वनस्पति जगत में जो दृश्यमान भाग है, वह सब मूल प्रकृति का
ही विकार है। यह ‘प्रकृति’ ईश्वर व जीव के बाद
तीसरा मौलिक तत्व व पदार्थ है।
यह
समस्त ब्रह्माण्ड चेतन ईश्वर व जीवात्मा के द्वारा व जड़ प्रकृति से बना है। सृष्टि
को बनाने वाला ईश्वर है। अन्य कोई चौथा मौलिक पदार्थ व सत्ता ब्रह्माण्ड में नहीं
है। इससे यह ज्ञात होता है कि संसार में मूल तीन पदार्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति ही अनादि
पदार्थ हैं। यह सदा से हैं और सदा रहेंगे। इनका कभी अन्त व नाश नहीं होगा। सृष्टि
के बाद प्रलय व प्रलय के बाद सृष्टि अवश्य होती है जिसका कर्ता ईश्वर होता है।
जीवात्माओं के कर्मों के सुख व दुःख रूपी भोग प्रदान करने के लिए ही ईश्वर ने इस
सृष्टि को रचा है और भविष्य में अनन्त काल तक रचेगा। हम इस जन्म में मनुष्य हैं, अगले जन्म में मनुष्य
भी हो सकते हैं या फिर पश्वादि योनियों में भी जा सकते हैं जिसका आधार हमारे पूर्व
जन्म के कर्म होंगे। ईश्वर की न्याय व्यवस्था से हमारा बार बार पुनर्जन्म होता है।
हमारी यह मानव सृष्टि एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ अट्ठारह वर्ष
पूर्व बनी थी। प्रलय होने में अभी 2 अरब 33 करोड़ वर्ष शेष हैं। यह
गणना हमने सृष्टि के भोग काल 994 चतुर्युगियों को मानकर
की है। प्रलय होने पर 4.32 अरब वर्षों तक प्रलय रहेगी। इसे ईश्वर की रात्रि वा ब्रह्म रात्रि
कहते हैं। इसके बाद ईश्वर पुनः सृष्टि की रचना करेगा। प्रलय काल में सभी जीव व मूल
प्रकृति ईश्वर व आकाश में विद्यमान रहते हैं। लेख को विराम देने से पूर्व एक बार
पुनः जान लेते हैं कि सृष्टि में अनादि व नित्य तीन पदार्थ हैं ईश्वर जीव व
प्रकृति। ब्रह्माण्ड में इन तीन पदार्थों का ही अस्तित्व है। प्रकृति के द्वारा
ईश्वर जीवों के लिए सृष्टि का निर्माण करते हैं। अन्य लोकलोकान्तरों में मनुष्यादि
सृष्टि होने की सम्भावना है। ईश्वर का कोई कार्य अकारण व व्यर्थ नहीं होता। उसके
सभी कार्य उद्देश्य पूर्ण होते हैं। जब ईश्वर ने यह ब्रह्माण्ड जीवों के लिए ही
बनाया है तो निश्चय ही पृथिवी सदृश्य अन्य लोकलोकान्तरों पर भी मनुष्य आदि प्राणी
अवश्य होंगे। इति ओ३म् शम्।
-मनमोहन
कुमार आर्य
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