इन्द्रं मत्रं वरुणमग्निमहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः।। -). 1।164। 46 अथर्व. 9।10।28
ऋषि -दीर्घतमाः।। देवता-सूर्यः।।
छन्दः-निचृत्त्रिष्टुप्।।
विनय-हे मनुष्यो! इस संसार में एक ही परमात्मा है। हम सब मनुष्यों का एक ही
प्रभु है। हम चाहे किसी सम्प्रदाय, किसी पन्थ, किसी मत के माननेवाले हों, परन्तु संसार भर के हम सब मनुष्यों का
एक ही ईश्वर है। भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायवाले उसे भिन्न-भिन्न
नाम से पुकारते हैं, परन्तु वह
तो एक ही है। जो जिस देश में व जिस सम्प्रदाय के वायुमण्डल में रहा है, वह वहाँ के प्रचलित प्रभु नाम से उसे
पुकारता है। कोई ‘राम’ कहता है, कोई ‘शिव’ कहता है, कोई ‘अल्लाह’ कहता है, कोई ‘लॉर्ड’ कहता है। ‘विप्रों’ ने, ज्ञानी पुरुषों ने, उस प्रभु को जिस रूप में देखा, उसके जिस गुणोत्कर्ष का उन्हें अनुभव
हुआ, अपनी भाषा
में उसी के वाचक शब्द से उसे वे पुकारने लगे। उन विप्रों द्वारा वही नाम उस समाज व
सम्प्रदाय में फैल गया। कोई विप्र गुरु से ग्रहण करके उसे ‘ओं’ या ‘नायायण’ नाम से पुकारता है, तो कोई अपने महात्माओं और सद्ग्रन्थों
से पाकर उसे ‘खुदा’ या ‘रहीम’ कहता है, परन्तु वह प्रभु एक ही है।
हम साम्प्रदायिक लोगों ने संसार में बड़े-बड़े उपद्रव किये हैं और आश्चर्य यह
कि ये सब लड़ाई-दंगे अपने प्रभु के नाम पर हुए! वैष्णवों और शैवों के झगड़े हुए हैं, हिन्दू और मुसलमानों में रक्तपात हुए
हैं, यहूदियों
और ईसाइयों के यु( हुए हैं-यह सब क्यों? यह सब तभी होता है जब हम यह भूल जाते
हैं कि ‘‘एकं सद्
विप्रा बहुधा वदन्ति’’-वह एक ही
है, परन्तु
ज्ञानी लोगों ने अपने-अपने अनुभवों के अनुसार उसे भिन्न-भिन्न नाम दिया है। ईश्वर
होने से वही ‘इन्द्र’ है, मृत्यु से त्राता होने से वही ‘मित्र’ है, पापनिवारक होने से वही ‘वरुण’ है, प्रकाशक होने से वही ‘अग्नि’ है। वेदमन्त्रों में इन नाना नामों से
पुकारा जाता हुआ भी वह एक है। इसी प्रकार वेदमन्त्रों ने ‘दिव्य’, ‘सुपर्ण’ ;शोभन पतनवालाद्ध या ‘गरुत्मान्’ ;गुरु आत्माद्ध, ‘अग्नि’, ‘यम’ ;नियन्ताद्ध और ‘मातरिश्वा’ ;अन्तरिक्ष में श्वसन करनेवालाद्ध आदि
भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा, परन्तु
अज्ञानियों ने उसे भिन्न-भिन्न नामों से पृथक्-पृथक् समझ लिया और पृथक्-पृथक् कर
दिया। वेद की पुकार सुनो-वह एक है! वह एक है!-एकं सत्!
शब्दार्थ-विप्राः=ज्ञानी पुरुष एकं सत्=एक ही होते हुए को बहुधा
वदन्ति=अनेक प्रकार से बोलते हैं। उस एक ही को इन्द्रं, मित्रं, वरुणं, अग्निं आहुः=इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि कहते हैं। अथो सः दिव्यः सुपर्णः
गरुत्मान्=और वही दिव्य, सुपर्ण
गरुत्मान् कहलाता है अग्निं यमं मातरिश्वानं आहुः=उस एक ही को अग्नि, यम और मातरिश्वा कहते हैं।
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