मनुष्य का परिचय क्या है? हम
मनुष्य हैं और अपने जीवनकाल में अनेक स्थानों पर हमें अपना परिचय देना होता है। हम
वहां कहते हैं कि मेरा अमुक नाम है, मैं अमुक मात-पिता की सन्तान हूं। मैं
अमुक स्थान पर रहता है। मेरी शिक्षा दीक्षा बी.ए. या एम.ए. अथवा विज्ञान स्नातक या
स्नात्कोत्तर है। डाक्टर या इंजीनयर हूं। स्वपोषक व्यवसायी या सरकारी अधिकारी आदि
हूं। ऐसे कुछ वाक्य और भी बोले जाते हैं। हम समझते हैं इन शब्दों वा वाक्यों में
हमारा अधिकांश परिचय आ जाता है। जिसको परिचय बताया जाता है वह भी इससे सन्तुष्ट हो
जाता है। वास्तविकता यह भी है कि अपने बारे में इससे अधिक हम जानते भी नहीं हैं।
प्रश्न है कि क्या यह हमारा वास्तविक व पूर्ण परिचय है? यह हमारा
पूर्ण परिचय नहीं है। इस परिचय में बहुत से तथ्य नदारद हैं। हम जब वैदिक शास्त्र व
ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि हम शरीर नहीं अपितु आत्मा
है। हमारी आत्मा एक चेतन तत्व है। हमारा शरीर प्रकृति के परमाणुओं से बना हुआ एक
जड़ पदार्थ है जो समय के साथ पुराना व बूढ़ा होगा और अन्त में इसकी मृत्यु होगी और
यह नष्ट हो जायेगा। जिस प्रकार रथ में रथ व सारथी होता है उसी प्रकार से हमारा
शरीर एक रथ के समान है जिसमें सारथी की भूमिका में हमारी आत्मा हैं। हमारी आत्मा
अर्थात् हम इस शरीर को जैसा चाहते हैं वैसा ही यह चलता है। आत्मा व मनुष्य के लिए
दो मार्ग हैं एक श्रेय मार्ग है और दूसरा प्रेय मार्ग है। श्रेय मार्ग ईश्वर की ओर
ले जाता और आत्मा का कल्याण करता है वहीं प्रेय मार्ग मनुष्य को ईश्वर के विपरीत
संसार की ओर ले जाता है जो कल्याण का मार्ग न होकर परिणाम में दुःख व अवनति का
मार्ग होता है। मनुष्य का जन्म आत्मा और परमात्मा को जानने व परमात्मा की स्तुति,
प्रार्थना व उपासना के लिए ही हुआ है।
मनुष्य को तीन ऋणों से उऋण होना होता है। यह ऋण
है परमात्मा का ऋण, ऋषियों सहित माता-पिता का ऋण और राष्ट्र का ऋण।
परमात्मा का ऋण इस कारण से है कि उसने हमारे व हमारे समान जीवात्माओं के सुख व
अपवर्ग के लिए यह संसार व इसमें नाना प्रकार के सुख भोग की सामग्री को बनाया है।
उस परमात्मा ने ही हमें ऋषि, विद्वान व माता-पिता सहित सगे संबंधी
आदि कुटुम्बी प्रदान किये हैं। इस कारण से हम परमात्मा के भी ऋणी हैं और ऋषियों,
विद्वानों व माता-पिता आदि ज्ञानवृद्ध जनों के भी ऋणी हैं। परमात्मा
ने हमें वेदों का ज्ञान दिया है जिससे इस संसार को यथार्थ रूप में जाना जाता है।
यदि वह वेदों का ज्ञान न देता तो आदिकाल में हमारे पूर्वज भाषा व ज्ञान को प्राप्त
न कर पाते अर्थात् उन्हें ईश्वर, आत्मा व संसार का यथार्थ ज्ञान न होता।
यह ज्ञान आरम्भ में वेद से ही हुआ, अतः संसार की समस्त मानव जाति परमात्मा
की ऋणी है। माता-पिता ने हमें जन्म दिया, दूसरा विद्या
रूपी जन्म हमें आचार्यों, गुरुओं व विद्वानों आदि से हुआ। अतः इन
महानुभावों के भी हम ऋणी हैं। यह पृथिवी हमारी माता के समान है। अथर्ववेद में इसे
माता के नाम से ही सम्बोधित किया गया और स्वयं को भूमि का पुत्र कहा गया है। अतः
एक पुत्र के माता- पिता के प्रति जो कर्तव्य होते हैं, वही
कर्तव्य हमारे भी भूमि माता के प्रति हैं। हमारी भूमि माता हमारा राष्ट्र है। जिस
मनुष्य में देश भक्ति न हो वह देश का शत्रु कहलाता है। हमें देशभक्त बनना है न कि
देश का शत्रु। इन सभी ऋणों से भी हमें निवृत्त व उऋण होना है। शास्त्र बतातें हैं
कि इसके लिए हमें पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान प्रतिदिन करना है। ऐसा करके ही हम इन
तीन ऋणों से उऋण हो सकते हैं। यह पंचमहायज्ञ सन्ध्या, देवयज्ञ
अग्निहोत्र, पितृ यज्ञ, अतिथि
यज्ञ और बलिवैश्वदेव यज्ञ हैं। इन पंच महायज्ञों की विधि विधान का पुस्तक ऋषि
दयानन्द सरस्वती जी ने लिखा है। पंचमहायज्ञों की पुस्तक को आर्यसमाज या आर्य
साहित्य विक्रेता से लेकर देखा जा सकता है और इसके अनुसार इन यज्ञों को सभी को
दैनन्दिन करना भी चाहिये।
मनुष्य जड़ शरीर नहीं अपितु इस रथ रूपी शरीर में
निवास करने वाला चेतन आत्मा है। यह आत्मा अनादि, नित्य,
अनुत्पन्न, अमर, अविनाशी,
सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम है।
यह कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है।
आत्मा अग्नि से जलता नहीं, वायु से सूखता नहीं, न
यह बच्चा होता है, न युवा और न ही वृद्ध होता है। हमारी यह सृष्टि
प्रवाह से अनादि व अन्तरहित है। रात्रि व दिवस के समान यह सृष्टि भी निरन्तर बनती
बिगड़ी रहती है। ईश्वर से इसकी रचना होती है व यथा समय उसी से प्रलय होती है। प्रलय
के बाद पुनः इसकी सृष्टि व रचना होती है। यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और
हमेशा चलता रहेगा। यह सृष्टि मनुष्यों के कर्मों के फल भोग के लिए बनती है अर्थात्
परमात्मा इसे बनाता है। अतः मनुष्य हमेशा से जन्म लेता आया है और अनन्त काल तक
इसके जन्म व मृत्यु होती रहेगी। कुछ मनुष्य भाग्यशाली होते हैं जो वेदज्ञान को
प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण करते हैं। वह मृत्यु होने पर मुक्त हो जाते हैं और
लम्बी अवधि के लिए जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त रहते हैं। वह दुःखों से सर्वथा
रहित होते हैं। मुक्ति में अनन्त आनन्द है जो ईश्वर के सान्निध्य से मुक्त
जीवात्माओं को प्राप्त होता है। मुक्ति की अवधि पूरी होने पर मुक्त जीवात्माओं का
पुनः मनुष्य योनि में जन्म होता है। यह सब जीवात्मा के गुण, कर्म व
स्वभाव व उसके अस्तित्व के प्रमाण हैं।
ऋषि दयानन्द जी वेदादि शास्त्रों के शीर्षस्थ
विद्वान थे। उन्होंने लिखा है कि आत्मा चेतनस्वरूप है। जीवात्मा का स्वभाव
पवित्रता व धार्मिकता आदि है। जीव के
सन्तानोत्पत्ति करना, उन सन्तानों का पालन करना, शिल्पविद्या
आदि अच्छे बुरे कर्म करना कर्तव्य व अकर्तव्य आदि हैं। न्याय दर्शन के आधार पर
आत्मा के लिंग बताते हुए वह कहते हैं कि जीवात्मा पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा
करता है तथा दुःखादि की अनिच्छा करता है। इसके अतिरिक्त वैर, पुरुषार्थ,
बल, आनन्द, विलाप, अप्रसन्नता,
विवेक, पहिचानना आदि इसके लिंग व चिन्ह हैं। प्राणवायु को बाहर निकालना, प्राण
को बाहर से भीतर को लेना, आंख को बन्द करना, आंख
को खोलना, प्राणों को धारण करना, निश्चय, स्मरण और
अहंकार करना, पैरों से यत्र तत्र आना-जाना व चलना, सब
इन्द्रियों को विषयों में चलाना, भिन्न-भिन्न प्रकार की क्षुधा अर्थात्
भूख, प्यास, हर्ष, शोकायुक्त होना,
ये जीवात्मा के गुण हैं। जीवात्मा के यह गुण परमात्मा से पृथक हैं।
इन्हीं गुणों से आत्मा की प्रतीती होती है अर्थात् यह गुण आत्मा का परिचय हैं।
अतः हमारा पूरा परिचय तभी होता है जब हम अपनी
आत्मा के गुणों का भी उल्लेख करें। यदि हम आत्मा के गुणों को नहीं जानते और परिचय
पूछने पर उनकी किंचित चर्चा नहीं करते तो हमारा परिचय कराना अपूर्ण परिचय होता है।
अतः हमें अपनी आत्मा के गुणों व उसके चिन्हों को अवश्य जानना चाहिये। इन्हें जानकर
ही हम विज्ञ व विप्र होते हैं। जीवात्मा को जानकर हमें ईश्वर को भी जानना होता है।
ईश्वर का ज्ञान भी वेद, वैदिक साहित्य, उपनिषद
आदि सहित सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय आदि के द्वारा ठीक-ठीक
होता है। यह जान लेने पर हमें अपना कर्तव्य ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना
व उपासना सहित ज्ञान प्राप्ति कर तीन ऋणों से उऋण होने के लिए प्रयत्न व पुरुषार्थ
करना निश्चित होता है। संक्षेप से हमने यहां आत्मा के गुणों आदि की चर्चा की है।
आशा है पाठक इससे लाभान्वित होंगे। ओ३म् शम्।
“ईश्वर विश्व के सभी मनुष्यादि प्राणियों का
महानतम न्यायाधीश है”
............
इस संसार में तीन शाश्वत सत्तायें हैं जिनके
नाम हैं ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर एक सच्चिदानन्दस्वरूप,
सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, अनादि,
अजन्मा, नित्य, अविनाशी,
अमर, सृष्टिकर्ता व जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार
जन्म-मरण आदि के द्वारा भोग अर्थात् सुख व दुःख प्रदान करने वाली निष्पक्ष,
सक्षम, न्याय करने वाली व उसका पूर्ण रूप से पालन
कराने वाली सत्ता है। ईश्वर ऐसी सत्ता है जो किसी एक जीवात्मा व प्राणी को भी छोटे
से छोटा अपराध करने पर छोड़ती नहीं अपितु प्रत्येक प्राणी को उसके छोटे व बड़े सभी
कर्मों का सुख व दुख रूपी फल अवश्यमेव प्रदान करती है। इसी विशेषता के कारण आदि
काल से लेकर महाभारतकाल व उसके बाद भी विज्ञ व ज्ञानी मनुष्यजन अपने जीवन का आरम्भ
गुरुकुलों में वेदों की शिक्षा से करते थे। वह वहां वेदों की भाषा संस्कृत का
अध्ययन करते थे। ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति
सहित सभी सांसारिक व्यवहारों को जान व समझ कर अपना जीवन ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना,
उपासना व त्याग भाव से संसार का भोग करने में बिताते थे। हमारे
पूर्वज अपने पूर्व जन्मों का कर्म भोगते हुए श्रेष्ठ गुण, कर्म व
स्वभाव को धारण करते थे और सात्विक कर्मों से अपने जीवनयापन हेतु आवश्यक सामग्री व
पदार्थों को जुटाते थे। वह अधिक सुखों के भोग को न तो स्वयं के लिए आवश्यक मानते
थे और न ही दूसरों को उनके अत्यधिक भोग करने की प्रेरणा ही करते थे। महाभारत काल
तक ऐसी ही व्यवस्था देश में विद्यमान थी जिस कारण से देश में वर्तमान समय से अधिक
सुख व समृद्धि का अनुमान किया जा सकता है।
ईश्वर को जानना मनुष्य के लिए अतीव आवश्यक है।
ईश्वर को यथार्थ रूप में जान लेने पर मनुष्य पापों से बच जाता है और श्रेष्ठ गुण,
कर्म व स्वभाव धारण कर देश व समाज की उन्नति सहित अपनी उन्नति भी
करता है। संसार के तीन प्रमुख पदार्थों में जीवात्मा का स्थान दूसरे स्थान पर है।
जीवात्मा भी अनादि, अनुत्पन्न, नित्य,
अमर, अविनाशी, चेतन
पदार्थ, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ,
जन्म-मरण के बन्धनों में फंसा हुआ एक सत्तावान पदार्थ है। जीवों की
संख्या मनुष्यों की दृष्टि में अनन्त है परन्तु ईश्वर की दृष्टि में यह अनन्त न
होकर सभी जीव सीमित ही कहे जा सकते हैं। अल्पज्ञ होने के कारण जीव अविद्या को
प्राप्त हो जाता है जिसका परिणाम बन्धन अर्थात् जन्म व मरण के चक्र में फंसना होता
है। जीवात्मा जब मनुष्य का जन्म लेता है तो अपनी अल्पज्ञता, सीमित
ज्ञान व स्वभाव के अनुसार अच्छे व बुरे कर्म करता है। इन अच्छे व बुरे कर्मों का
फल इसे संसार का एकमात्र न्यायाधीश ईश्वर अपने सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान स्वरूप
से प्रदान करता है।
यह ध्यातव्य है कि मनुष्य कर्म करने में
स्वतन्त्र है और उनके फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था के अन्तर्गत पराघीन होता है।
ईश्वर सर्वव्यापक होने के साथ सर्वातिसूक्ष्म है जबकि जीवात्मा भी सूक्ष्म तो है
परन्तु ईश्वर उससे भी सूक्ष्म है। इस अति सूक्ष्मता के कारण ईश्वर जीवात्मा के
भीतर भी विद्यमान रहता है। ईश्वर सर्वज्ञ है अतः वह जीव के भीतर उठने वाले संकल्प
व विकल्पों सहित उसकी बाह्य सभी अच्छी व बुरी चेष्टाओं को भी जानता है। यह ऐसा ही
है कि जैसे हम अपनी आंखों से अपने सामने होने वाले लोगों व उनके कार्यों को देखते
हैं, उनकी बातों को सुनते हैं, उनसे वार्तालाप
करते हैं और उनसे विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। ईश्वर भी हमारी आत्मा के भीतर
व बाहर व इस जगत में सर्वव्यापक होने के कारण सभी जीवों के सभी कार्यों चाहे वह
रात्रि में एकान्त में ही क्यूं न करें, भली प्रकार से
जानता है। ईश्वर को जीवों के कर्मों के लिए दूसरों की साक्षी की भी आवश्यकता नहीं
होती। वह अपनी सर्वव्यापकता से सब जीवों के हर क्षण व हर पल के सभी कर्मों का
साक्षी होता है। ईश्वर सभी जीवों के कर्मों के अनुसार उन्हें अच्छे कर्मो के लिए
प्रसन्नता व सुख देकर प्रोत्साहित करता है और अपराध करने वाले दुष्ट प्रवृत्ति के
मनुष्यों को दुःखरूपी दण्ड देकर उन्हें पापों से विमुख करने की शिक्षा व प्रेरणा
भी करता है।
हम यह भी जानते हैं कि मनुष्य का शरीर अविनाशी
नहीं है। यह लगभग 100 वर्षों तक ही जीवित रह सकता है। इस आयु तक आते
आते अधिकांश मनुष्यों की मृत्यु हो जाती है। बहुत से लोग अनेक कारणों से रोग व
दुर्घटना आदि होने से पहले भी मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं। मृत्यु के आने पर
मनुष्यों के जो अच्छे व बुरे कर्म बिना भोगे हुए रह जाते हैं, उन
बचे हुए कर्मों के अनुसार ईश्वर उन-उन जीवात्माओं के जाति, आयु और
भोग निर्धारित कर उन्हें भिन्न भिन्न प्राणी योनियों में जन्म देता है। इस न्याय
प्रक्रिया को पूरा करने के कारण ईश्वर संसार का एक अनोखा न्यायाधीश सिद्ध होता है।
वेदों में आये ‘अर्यमा’ शब्द से
ईश्वर का न्यायाधीश होना ही बताया गया है। विद्वान मनुष्य जानते हैं कि यदि हम एक
छोटे से छोटा अनुचित कर्म करेंगे तो हमें ईश्वर की व्यवस्था से उसका दण्ड वर्तमान
व भविष्य के अनेक जन्मों में भोगना पड़ सकता है। इसलिये वेद के विद्वान वा धार्मिक
लोग परोपकार एवं दान आदि श्रेष्ठ कर्म करते हुए अपना अधिकांश समय ईश्वर को जानने व
उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना आदि में ही लगाते हैं
क्योंकि विवेक से वह जान चुके होते हैं कि इसी से उनकी इस जन्म व परजन्म में
उन्नति व सुख व शान्ति की प्राप्ति होगी।
आज का युग ज्ञान विज्ञान का युग होते हुए भी
ईश्वर व जीव के ज्ञान की दृष्टि से अविकसित व अवनत युग ही कहा जा सकता है। आज
भौतिक विज्ञानियों ने भौतिक उन्नति करते हुए मनुष्यों की सुख सुविधाओं की अनेक वस्तुयें
बनाई हैं परन्तु इन वस्तुओं से मनुष्य ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र,
मातृ-पितृ की सेवा व पूजन, सभी प्राणियों
के प्रति प्रेम व अहिंसा का भाव, सबसे समानता व प्रेम का भाव रखने व
अन्याय व शोषण से मुक्त जीवन बनाने में आज भी बहुत पीछे व दूर है। इसका परिणाम उसके
जीवन के अन्तिम समय व परजन्म में बुरा ही होना है, ऐसा वेद
आदि शास्त्रों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है। अतः सभी मनुष्यों का कर्तव्य है
कि वह अपने जीवन में वेद आदि प्राचीन आर्ष ग्रन्थों सहित सत्यार्थप्रकाश आदि
ग्रन्थों का भी अध्ययन व स्वाध्याय करें और ईश्वर, प्रकृति,
माता-पिता, समाज एवं देश के प्रति अपने कर्तव्यों
को जानकर उसका पालन करें। ऐसा करके ही मनुष्य इस जन्म व परजन्म में उन्नति कर सकते
हैं अर्थात् सुखी रह सकते हैं। हमने यहां संकेत मात्र किया है। किसी अच्छी सलाह को
मानना या न मानना प्रत्येक मनुष्य का अपना अधिकार है। जो उचित सलाह को मान लेते
हैं वह भविष्य में लाभ प्राप्त करते हैं अन्य नहीं।
हमें हमारा यह मनुष्य जन्म हमें अपने पूर्व
जन्मों के कर्मों अर्थात् प्रारब्ध के आधार पर मिला था। अन्य प्राणियों को भी उनके
उनके प्रारब्ध के अनुसार मिला है। आगे भी यही परम्परा चलनी है। वृद्धावस्था पूर्ण
होने पर हमारी व अन्य सभी की मृत्यु होनी है। उसी के आधार पर हमारी परजन्म की योनि
अर्यमा-न्यायाधीश परमेश्वर करेगा। अतः हम ज्ञान व कर्म का अपने जीवन में समन्वय कर
पापों से बचते हुए उन्नति को प्राप्त हों। हमें ईश्वर के न्याय में विश्वास रखना
चाहिये। आज कोई ईश्वर व आत्मा को भूल कर व भुलाकर चाहे कितना ही अन्याय व शोषण कर
लें, उसका भविष्य निश्चय ही खराब होगा। यही वेदादि ग्रन्थों का सार है।
ईश्वर न्यायकारी होने से सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीश है। कोई उसके न्याय से बच नहीं
सकता। छोटे से छोटे कर्म का भी फल उसके करने वाले जीवात्मा को जन्म जन्मान्तर में
भोगना ही होगा। किसी मनुष्य व प्राणी का कोई कर्म ईश्वर से छुप नहीं सकता। वह हर
काल में हर जीव के कर्मों को देखता व उसे हमेशा स्मरण रखता है। बुरे कर्मों का
परिणाम दुःख ही है। जो मनुष्य दुःख भोगना नहीं चाहते उन्हें आज ही बुरे कर्म करने
छोड़ देने चाहिये और परोपकार व दान सहित ईश्वरोपासना व यज्ञीय कार्य अधिक से अधिक
करने चाहियें। इति ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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