हमारे मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता
है? इसका सरल उपाय तो वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय है जिसमें ऋषि दयानन्द
के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय
आदि का महत्वपूर्ण स्थान है। दर्शनों व उपनिषदों सहित वेदादि भाष्यों का
अध्ययन भी उपयोगी है। मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य तो जीवन से अविद्या को
दूर करना है। अविद्या दूर करने के लिए विद्या का ग्रहण व उसे धारण करना
आवश्यक है। विद्या को धारण कर उसे आचरण में लाना है और विद्या को आचरण में
लाने का अर्थ है विद्या के अनुरूप आचरण अर्थात् सदाचरण और सद्कर्मों को
करना। वेदों में कहा है कि सद्कर्मों व सदाचरण से मनुष्य मृत्यु को पार हो
जाता है और विद्या से उसे अमृत वा मोक्ष की प्राप्ति होती है। मनुष्य को
विद्या प्राप्ति के साथ ईश्वर, आत्मा और सृष्टि का ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर
की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का करना उसका कर्तव्य सिद्ध होता है। ईश्वर
में ध्यान करने के लिए अपने जीवन को ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुरूप
व अपने स्वभाव व आचरण को ईश्वर के अनुरूप करना आवश्यक है। ऐसा करके ईश्वर
से मेल होने से जीवात्मा दुर्गुण, दुर्व्यस्न व दुःखों से दूर हो जाता है।
इस स्थिति को प्राप्त होने पर ईश्वर का साक्षात्कार होना सम्भव है।
आप्तोपदेश वा ऋषि वचनों से ज्ञात होता है कि ज्ञान, कर्म व उपासना की सफलता
होने पर मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार कर निर्भ्रान्त हो जाता है। यह जीवन
की उच्चतम व श्रेष्ठ स्थिति होती है। सभी मनुष्यों को इसके लिए प्रयत्न
करना चाहिये। यदि यह स्थिति सम्पादित हो गई तो इससे यह जन्म व परजन्म दोनों
सुधरते हैं। यदि यह स्थिति नहीं बनी तो मनुष्य जीवन की बहुत बड़ी हानि होती
है। इसका अनुमान स्वाध्यायशील व्यक्ति, ज्ञानी व विद्वान ही लगा सकते हैं।
एक प्रकार से कहें तो यह वैदिक शिक्षा का सार है। इसी लिए महर्षि दयानन्द
ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि वह व्यक्ति भाग्यशाली हैं जिसके
माता-पिता व आचार्य वैदिक धर्मी व धार्मिक विद्वान हों। उनसे अपनी सन्तान व
शिष्यों का जो कल्याण होता है वह अन्य माता-पिता व आचार्यों के द्वारा
नहीं होता है।
मनुष्य जीवन में जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऋषि
दयानन्द ने प्राचीन काल में प्रचलित पंचमहायज्ञों व उनकी विधि का
पुनरुद्धार किया है। यह भी महर्षि दयानन्द जी की देश व विश्व को बहुत बड़ी
देन है। इसके साथ ही महर्षि दयानन्द के अन्य सभी ग्रन्थ मनुष्य की अविद्या
को दूर कर उसे विद्वान बनाते हैं जिनसे मनुष्य में विवेक उत्पन्न होता है।
सन्ध्या वा ईश्वर के ध्यान की प्रेरणा मिलती है। वह नास्तिकता से दूर वा
मुक्त होकर ईश्वर का सच्चा उपासक, देशहितैषी वा देशभक्त बनता है। सभी
चारित्रिक बुराईयों से ऊपर उठकर एक आदर्श नागरिक बनता है। ऐसे लोगों से ही
देश व समाज का हित होता है। ऐसे लोग अपने जीवन को भी महनीय बनाते हैं व देश
व समाज के लिए उनका योगदान प्रशंसनीय व महत्वपूर्ण होता है।
इस पृष्ठभूमि में जब हम आर्यसमाज के प्रवर्तक ऋषि दयानन्द और उनके कुछ
प्रमुख अनुयायियों के जीवनों पर विचार करते हैं तो हम सभी को स्वाध्यायशील व
ईश्वरोपासना सहित समाज सुधार व दूसरों के कल्याण के कामों में लगा हुआ
पाते हैं। उनमें ज्ञान व कर्म का सन्तुलन दिखाई देता है। मन, वचन व कर्म से
वह एक होते हैं। ऋषि दयानन्द सच्चे ईश्वर उपासक थे और इसका प्रचार
उन्होंने लेख व प्रवचनों सहित अपने जीवन के उदाहरण से भी किया है। वह ऐसे
योगी थे जो लगातार 16 घंटे की समाधि लगा सकता था। समाधि वह अवस्था होती है
जिसमें ईश्वर का साक्षात्कार होता है। ईश्वर साक्षात्कार मनुष्य की आत्मा
के लिए सबसे अधिक सुखदायक व आनन्द की स्थिति होती है। ऐसा सुख व आनन्द
संसार के किसी भौतिक पदार्थ में नहीं होता। इसी कारण प्राचीनकाल से हमारे
सभी ऋषि व योगी भौतिक पदार्थों, धन व ऐश्वर्य से अधिक महत्व ईश्वर के
ध्यान, उसकी उपासना और समाज हित के कार्यो को देते थे। आज यदि हम मध्यकालीन
समाज और वर्तमान समाज पर दृष्टि डाले और दोनों की तुलना करें तो हमें आज
का समाज कहीं अधिक उन्नत व समृद्ध दृष्टिगोचर होता है। इसका अधिकांश श्रेय
महर्षि दयानन्द को देना होगा। उन्होंने समाज से अन्धविश्वास, कुरीतियां व
पाखण्ड दूर करने के साथ वेद और वैदिक विद्याओं का प्रचार किया। वह ज्ञान की
विपुल राशि समाज को दे गये हैं जिसका जो भी मनुष्य उपयोग करेगा वह उस
विद्या धन से सुखी व समृद्ध बनेगा और उसे सबसे बढ़कर जो प्राप्ति होगी वह
आत्म संतोष कह सकते हैं।
स्वाध्याय का जीवन में प्रमुख स्थान है। इसका ज्ञान उसी को होता है जो
स्वाध्याय करता है। स्वाध्याय के साथ निष्पक्ष व निस्वार्थ भावना वाले
विद्वानों के प्रवचनों का भी महत्व होता है। अतः मनुष्य को अच्छी पुस्तकों
का संग्रह कर उसका नियमित अधिक से अधिक अध्ययन करना चाहिये। इसका प्रभाव
उसके भावी जीवन में पड़ेगा। वह बहुत सी बुराईयों व बुरे कामों से बच जायेगा
और स्वाध्याय के परिणाम स्वरूप श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव को धारण कर
वर्तमान व भावी जीवन का निर्माण व उन्नयन करेगा। ऐसा जीवन ही सफल जीवन कहा
जा सकता है। लेख की समाप्ति पर यह निवेदन करना चाहते हैं कि ऋषि दयानन्द
सहित अन्य महापुरुषों के जीवन को सभी मनुष्यों का श्रद्धापूर्वक पढ़ना
चाहिये और सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग को अपने जीवन का उद्देश्य बनाना
चाहिये। इत्योम् शम्।
manmohan kumar
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