काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह से, हा! किसके तन मन रीते हैं।।
छूटें इनसे पिण्ड हमारे, अगणित
जन्म वृथा बीते हैं।
पांच पिशाच रुधिर पीते हैं।
अथर्ववेद के मंत्र - 8/4/22 में उपदेश
दिया गया है कि उलूकयातुमुत शुशलूकयातुम्, जहि श्वयातुमुत कोकयातुम।
सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुम, दृषदेव
प्रमशा रक्षइन्द्र।।
इस वेद मंत्र में उल्लू की चाल ;अज्ञानता अर्थात् मोहद्ध, भेड़िये की चाल ;क्रोधद्ध, हंस की चाल ;अहंकारद्ध, गिद्ध की चाल (लोभ) तथा चिड़ा की चाल
(काम) रूपी पांच शत्रुओं को जीतने का आह्वान किया गया है। वास्तव में उक्त पांचों
राक्षस मनुष्य के मूल प्रवृत्तिजन्य मनोविकार हैं, जिन्हें त्याग कर ही मनुष्य जीवन सफल
हो सकता है। प्रत्येक मनुष्य में मूल-प्रवृत्ति Instinct उग्र या शान्त रूप में अवश्य होती है।
मूल प्रवृत्तियां अपने जन्मजात अथवा प्राकृत रूप मे अत्यन्त विनाशकारी होती हैं।
प्रख्यात मनोवैज्ञानिक मैग्डूल ने मूल प्रवृत्ति की परिभाषा करते हुए कहा है
कि -‘‘मूल
प्रवृत्ति प्रदत्त शक्ति है, जिसके
कारण प्राणी किसी विशेष प्रकार के पदार्थ की ओर ध्यान देता है और उसकी उपस्थिति
में विशेष प्रकार के संवेग Emotionकी
अनुभूति करता है एवं उस पदार्थ के सम्बन्ध में एक विशेष प्रकार का आचरण करता है।’’ इन मूल प्रवृत्तिजन्य मनोविकारों के
विनाशकारी दुष्प्रभाव से इनके शोध Sublimation द्वारा बचा जा सकता है। धर्माचरण, सदाचार, सद्व्यवहार, स्वाध्याय, योग तथा सत्संग से दुष्ट मनोविकारों के
दुष्परिणाम से मुक्त हुआ जा सकता है।
काम
काम की प्रवृत्ति या मनोवेग अत्यन्त प्रबल होता है। ‘काम कुसुम धनु सायक लीने।’ काम के दुर्दमनीय वेग से मनुष्य बेबस व
पस्त हो जाता है। मैग्डूगल ने काम को डेंजमत प्देजपदबज कहा है।
स्त्री जातो मनुष्याणां स्त्रीशां च पुरुषेषु वा।
परस्परकृतः स्नेहः काम इव्यभिधीयते।। शार्गधर-1/67
अर्थात् स्त्रियों में पुरुषों के और पुरुषों में स्त्रियों के परस्पर
स्वाभाविक आकर्षण और स्नेह को ‘काम’ कहते हैं।
अतः स्त्री-पुरुष के समागम से सन्तान की उत्पत्ति होती है और सृष्टि का
प्रवाह चलता रहता है।
कमोजज्ञे प्रथमो नैनं देवा आपुः पितरो न मर्त्या।
तत स्वत्वर्मास ज्यामान् विश्वहा महांस्तस्मैते ते काम नम इत्कृणोमि।।
अथर्ववेद-9/2/19
अर्थात् काम सबसे पहले पैदा हुआ। इसको न देव जीत सके, न पितर और न मनुष्य जीत सके। इसलिए है
काम् तू सब प्रकार से बहुत बड़ा है। अतः मैं तुझे नमस्कार करता हूं।
श्रीमद्भागवत् गीता में लिखा है-
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्य वैरिणः।
काम रूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।
अर्थात् ज्ञान का नाश करने वाला यह काम ही ज्ञानियों तथा मुमुक्षओं ;मोक्ष के इच्छुकद्ध का वैरी है। ‘कामनुराणां न भय न लज्जा’ अर्थात् कामी व्यक्ति को न भय होती है
न लज्जा। ‘अन्धीकरोमि
भुवनं वधिरी करोमिजगत’ अर्थात्
काम व्यक्ति को अन्धा व बहरा कर देता है। राजा भर्तृहरि ने ‘शृंगार शतक’ के पहले ही श्लोक में काम की निन्दा
करते हुए लिखा कि-
हे काम! तुझे बार-बार धिक्कार है।
मनुस्मृति में लिखा है-‘‘न जातु
काम कामनामुप भोगेन शाम्यति हविषा कृष्ण वर्त्येव भूय एवामि वर्धते।’’ अर्थात् कामनाओं को निरन्तर जगाने से
कामनाओं का शमन नहीं होता। जिस प्रकार घी की आहुति से अग्नि प्रचण्ड होती है, उसी प्रकार निरन्तर भोग विलास से ‘काम’ भावना अत्यन्त प्रचण्ड हो जाती है और
कामी मनुष्य शक्तिहीन, अकर्मण्य
एवं निन्दनीय बन जाता है।
अनियंत्रित काम से व्यभिचार व बलात्कार की सृष्टि होती है। आज अश्लील
साहित्य, विज्ञापन, सिनेमा व टी.वी. सीरियलों में
प्रदर्शित उत्तेजक दृश्य, संवाद व
संगीत और अर्धनग्न पहनावा, तामसी
भोजन व मद्यपान तीव्र कामुकताकी सृष्टि करते हैं।
‘काम’ प्रवृत्ति को नियंत्रित व परिष्कृत
करने के लिए उसके मूल में उपस्थित प्रवृत्ति का उपयोग सद्साहित्य, कला व सुसंगीत के सृजन में करना चाहिए।
सात्विक जीवन व्यतीत करते हुए केवल सन्तानोत्पत्ति व वंश वृ( के लिए ‘काम’ मे प्रवृत्त होना चाहिए। कठोर संयम एवं
ब्रह्मचर्य के पालन से ही काम पर विजय पाई जा सकती है। गृहस्थ-ब्रह्मचारी भी काम
पर नियंत्रण कर सकते हैं। महाभारत के आदि पर्व में युधिष्ठिर के पूछने पर मंत्री
कणिक ने कहा कि ‘धर्मादर्थश्च
कामश्च स धर्म किन्न सेव्यते।’ अर्थात्
अर्थ और काम की सि( धर्म से होती है।
क्रोध
विपरीत परिस्थितियों में हानि पहुंचाने या अपमान करने वाले व्यक्तियों के
विरुद्ध उत्पन्न उग्र मनोभाव को ‘क्रोध’ कहते हैं। मनुस्मृति में उल्लिखित धर्म
के 10 लक्षणों
में ‘अक्रोध’ भी सम्मलित है।, इसका विलोम -‘क्रोध’-अधर्म, विनाश और पतन का द्योतक है।
श्रीमद्भागवत् गीता के श्लोक 63/2 में
श्रीकृष्ण अर्जुन को क्रोध के दुष्परिणाम बताते हुए कहते हैं-
क्रोधाद्मवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृति विभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धि नाशो बुद्धि नाशात्प्रास्यति।।
अर्थात् क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का
विभ्रम हो जाता है। जब स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है तो बुद्धि नष्ट हो जाती है
और बुद्धि नष्ट हो जाने पर मनुष्य भवकूप में गिर जाता है। क्रोध दो रूपों में
प्रगट होता है-कथनी और करनी में। प्रथम श्रेणी में क्रोध उद्दीप्त होने पर व्यक्ति
अपने विरोधी को ललकारते हुए कहता है कि मैं तेरी हड्डी पसली तोड़ दूंगा, तुझे मिट्टी में मिला दूंगा। मौखिक
क्रोध में व्यक्ति गाली और धमकी का प्रयोग करता है, जबकि करनी में व्यक्ति हिंसक हो जाता
है और उससे मारपीट करने लगता है तथा विरोघी की हत्या तक कर देता है, जिसका परिणाम फांसी या आजन्म कैद होता
है। सामाजिक, धार्मिक
एवं राजकीय क्रोध अत्यन्त विनाशकारी परिणाम को जन्म देता है। द्रौपदी की दुर्योधन
के प्रति व्यंग्यपूर्ण कटूक्ति का परिणाम ‘महाभारत’ युद्ध हुआ। एक का क्रोध दूसरे में
क्रोध का संचार करता है। क्रोध सब मनोविकारों में सबसे अधिक वेगवान है, जो शीघ्र शान्ति भंग कर देता है और
आक्रमण को प्रोत्साहित करता है। भेड़िया बहुत क्रोधी और हिंसक होता है और बिना कारण
ही आक्रमण कर देता है। इसलिए वेद में कहा गया है कि ‘शुशलूक यातुम्’ अर्थात् भेड़िये की चाल छोड़ दो।
प्रसिद्ध जैन सन्त मुनिश्री तरुण सागर क्रोध के बहुआयामी रूप का उल्लेख
करते हुए कहते हैं ‘‘क्रोध का
अपना पूरा खानदान है। क्रोध की एक लाडली बहन है-‘जिद’। वह हमेशा क्रोध के साथ-साथ रहती है।
क्रोध की पत्नी है-‘हिन्सा’। वह पीछे छिपी रहती है लेकिन कभी-कभी
आवाज सुनकर बाहर आ जाती है। क्रोध के बड़े भाई का नाम है - ‘अहंकार’ क्रो का बाप भी है, जिससे वह डरता है, बाप का नाम है-‘भय’। क्रोध की दो बेटियां हैं-‘निन्दा’ व ‘चुगली’, एक कान के पास रहती है, दूसरी मुंह के पास। क्रोध का बेटा है -
‘वैर’। ‘ईर्ष्या’-क्रोध के खानदान की नकचढ़ी बहू है।
क्रोध की पौत्री है ‘घृणा’, जो हमेशा नाक के पास रहती है।
क्रोध की मां है-‘उपेक्षा’।
क्रोध के साथ एक और सूक्ष्म भाव अनुस्यूत रहता है, वह भाव है-‘मत्सर’ मत्सर अर्थात् दूसरों के उत्कर्ष को
सहन न करने के फलस्वरूप अन्दर ही अन्दर क्रोध से उबलना और अपने साथियों से झगड़ा
करना। कुत्ते में मत्सर का प्रबल भाव होता है।
किन्तु सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में क्रोध की महती आवश्यकता होती है।
क्रोध, अन्याय, अत्याचार, शोषण और देश पर हुए आक्रमण का प्रतिकार
करने के लिए आवश्यक है। सहनशीलता, क्षमा, धर्म एवं शिष्टाचार का पालन क्रोध के
निरोध के उत्तम साधन हैं।
लोभ
वेद में कहा गया है ‘गृधयातुम’ अर्थात् गिद्ध की चाल छोड़ दो। गिद्ध
बहुत लालची और लोभी होता है। लोभ के मूल में अथ्रसंग्रह तथा इच्छाओं की पूर्ति है।
इच्छाएं लोभ को जन्म देती है तथा असन्तोष लोभ की वृद्धि करता है। इच्छाएं तीन
प्रकार की होती हैं-पुत्रेष्णा, वित्तेष्णा
तथा लोकेष्णा। इन में वित्तेष्णा (धन संग्रह) की चाह अत्यन्त तीव्र, प्रबल और असीमित होती है, जो उचित-अनुचित तथा वैध-अवैध उपायों से
धन संग्रह और उसके संरक्षण की तीव्र गतिशीलता प्रदान करती है। अनुचित ढंग से
धन-संग्रह द्वारा लोभ की पुष्टि करना निकृष्ट कार्य है और व्यक्ति विशेष के प्रति
लोभ रखना ‘मित्रता’ अथवा ‘प्रेम’ रूप में उत्कृष्ट कार्य है।
‘लोभ’ बहुत व्यापक मनोवृत्ति है। देशप्रेम भी
‘लोभ’ का एक रूप है, जिसमें देश की सुरक्षा व जनकल्याण का
लोभ रहता है। स्त्री-पुरुष का प्रेम भी वस्तुतः एक प्रकार का ‘लोभ’ है। लोभ से सान्निध्य को और प्राप्त
करने की इच्छा होती है। किसी प्राप्त वस्तु या व्यक्ति के संरक्षण व सान्निध्य की भावना उस वस्तु या व्यक्ति के प्रति
लोभ है। इस प्रकार वस्तु या व्यक्ति के प्रति आसक्ति ‘लोभ’ का तीव्र रूप है। श्रेष्ठ व त्यागी
संन्यासी तथा आप्त मनुष्य भी ‘लोकेष्णा’ ;यश व प्रसिद्धि प्राप्त करने की
इच्छाद्ध का ‘लोभ-संवरण’ नहीं कर पाते। वास्तन में ‘लोभ’ व्यक्ति को हीन एवं दुर्बल बना देता
है। धन का लोभ जब व्यसन बन जाता है तो लोभी की सद्वृत्तियां नष्ट हो जाती है।
आज के भौतिकवादी युग में ‘वित्तेष्णा’ की पूर्ति का ‘लोभ’ अत्यन्त विनाशकारी और मनुष्यता के पतन
का कारण बन गया है। अर्थोपार्जन के लिए चोरी,डाका, बेइमानी, शोषण, मिलावट, कर चोरी व अनेकानेक व्यसन एवं
वर्ग-संघर्ष का बोलबाला हो रहा है। आज का युग पूर्णतः अर्थ-प्रधान बन गया है।
महाभारत में आज से 5000 साल पहले
ही कहा गया था-‘‘अर्थस्य
पुरुषोदासः दास्त्वर्थो न कस्याचित्’’। अर्थात् मनुष्य धन का दास है, किन्तु धन किसी का दास नहीं। भर्तृहरि
ने ‘नीतिशतक’ में कहा-‘सर्वेगुणा कांचनामस्ति’ अर्थात् धन में सब गुण होते हैं।
धनवानों को ही सत्ता व सम्मान मिलता है।धनवान मूर्ख भी विद्वान, कायर भी वीर तथा भ्रष्ट होने पर भी
सदाचारी कहलाता है। धनवान के चारों ओर चापलूसों की भीड़ लग जाती है।
लोभी कभी लक्ष्य भ्रष्ट नहीं होते। निरन्तर अपने धन संग्रह व संरक्षण में
लगे रहते हैं। हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकारी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लोभियों
पर तीव्र व्यंय करते हुए लिखा है-‘‘लोभियों! तुम्हारा अक्रोध, तुम्हारा इन्द्रिय-निग्रह, तुम्हारी मान-अपमान समता, तुम्हारा तप अनुकरणीय है। किन्तु
तुम्हारी निष्ठुरता, तुम्हारी
निर्लज्जता, तुम्हारा
अविवेक तथा तुम्हारा अन्याय विग्रहणीय है। तुम धन्य हो! तुम्हें धिक्कार है!’’ वास्तव में ‘लोभ’ के वशीभूत होकर अनुचित तथा अवैध ढंग से
धन अर्जित करना पतन का मार्ग खोल देता है। इसलिए मनुस्मृति में कहा गया है कि-
‘सर्वेषामेव शौचनामर्थ शौचम परं
स्मृतम्।’
अर्थात् सभी पवित्रताओं में अर्थ की पवित्रता ही सर्वश्रेष्ठ है। मनुस्मुति
में अर्थ संग्रहके लिए पांच नियम निर्देशित किए हैंः-
(1) अर्थ संग्रह करने के समय किसी भी प्राणी को कष्ट न हो।
(2) अर्थ संग्रह करते समय अपने तन-मन को कष्ट न हो।
(3) अपने ही पुरुषार्थ से उत्पन्न किए गये अर्थ से निर्वाह किया जाए, दूसरों की कमाई से नहीं।
(4) अपना उत्पन्न किया हुआ धन भी किसी गर्हित कृत्य के द्वारा अर्जित न
किया जाए।
(5) अर्थोपार्जन के कारण स्वाध्याय तथा सत्संग में विघ्न न हो।
मनुष्य का कल्याण संग्रह में नहीं, अपितु त्याग में है। धन का सदुपयोग
सेवा, दान व
परोपकार के रूप में होना चाहिए। वेद में कहा गया है-‘‘केवलाघो भवति केवलादि’’ अर्थात् जो अकेला खाता है, वह पाप खाता है। इसलिए ‘अतिथि सत्कार’ को एक पवित्र यज्ञ माना गया है। ‘लोभ’ के राक्षस को ‘अपरिग्रह’ द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। ‘असार तथा अनावश्यक वस्तुओं व विचारों
को त्यागना ही ‘अपरिग्रह’ है।’ ‘इदमम्’ की धारणा ही ‘अपरिग्रह’ का मूल मंत्र है। अपनी आवश्यकताआें को
कम से कम रखना अपरिग्रह का प्रथम चरण है।
‘लोभ’ की मूल प्रवृत्ति की प्रेरक शक्ति
संग्रह वृ़त्त है। अतः संग्रह वृत्ति का उपयोग उत्तम कार्यों मे किया जा सकता
है-यथा पुस्तक-संग्रह सिक्का, टिकट
संग्रह आदि। म्यूजियम व्यापक संग्रह का उत्तम उदाहरण है।
महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर की एक प्रसि( उक्ति हैः- ‘मैं बांह उठाकर उच्च स्वर में कह रहा
हूं किन्तु, कोई सुनता
नहीं, धर्म से
ही ‘अर्थ’ और काम की सिद्धि होती है।’’
मोह
‘मोह’ अज्ञानता का प्रतीक है। श्रीमद्भागवत
गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने सम्बन्धियों के प्रति मोहाछन्न होने पर कहते
हैं कि ‘मोह’ से स्मरण शक्ति का विभ्रम हो जाता है
और बुद्धि नष्ट हो जाती है, जिसके
परिणामस्वरूप मनुष्य भवकूप में गिर जाता है। इसलिए वेद में कहा गया है ‘उलूकयातुम्’ अर्थात् है मनुष्य! तू उल्लू की चाल ;अज्ञानता रूपी मोहद्ध को छोड़ दे।
मोहासक्त व्यक्ति की अपने आत्मीय व्यक्ति के प्रति तीव्र आसक्ति की भावना होती है।
मोहासक्त व्यक्ति अपने आत्मीय के वियोग से अत्यन्त व्यथा व वेदना अनुभव करता है।
किसी शायर ने ठीक ही कहा है-
जुदा किसी से किसी का ग़रज हबीब न हो।
यह वह दर्द है जो दुश्मन को भी नसीब न हो।।
मोहासक्त व्यक्ति आत्मीय के वियोग की आशंका से सदैव भयभीत, चिन्तित व अकर्मण्य बना रहता है।
श्रीमद्भागवत गीता का प्रारम्भ मोहाच्छन्न अर्जुन द्वारा स्वजनों को मारने की
भावना से प्रेरित होकर युद्ध न करने की घोषणा के फलस्वरूप श्रीकृष्ण के उपदेशों से
होता है।
यदाते मोहकलिंल बुद्धिव्यतिरिष्यति।
तदागन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च। गीता-52/2
अर्थ- श्रीकृष्ण उवाचः हे अर्जुन! जब तुम्हारी बुद्धि ‘मोह’ रूपी सघन वन को पार कर जायेगी तो तुम
सुने हुए तथा सुनने योग्य सबके प्रति अन्यमनस्क हो जाओगे।
न्यायदर्शन में लिखा है, ‘मोहं
पापीयान’
अर्थात् ‘मोह’ सबसे बुरा है। जीव की अज्ञानता वश मोह
के कारण उसमें सब दोष उत्पन्न हो जाते हैं। मोह के कारण राग-द्वेष की उत्पत्ति
होती है। कभी-कभी मोह के अत्यन्त विनाशकारी परिणाम होते हैं। धृतराष्ट्र के
पुत्र-मोह के कारण ही महाभारत का भयंकर युद्ध हुआ।
श्रीमद्भागवत गीता में मोह के निवारण के लिए लिखा है-
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्त कालेऽपि ब्रह्मनिर्वायामृच्छति।।
अर्थात् यह आध्यात्मिक तथा ईश्वरीय जीवन का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य मोहित नहीं
होता। यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस तरक स्थित हो तो वह ईश्वर को प्राप्त
कर सकता है।
अहंकार
‘अहंकार’ अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा स्वयं को
श्रेष्ठ समझने की कुंठा है। अंग्रेजी में इसे.......... कह सकते हैं। किसी को
सत्ता, किसी को
बल, किसी को
धन, किसी को
अपने पांडित्य पर तथा किसी को रूप का ‘अहंकार’ होता है। अहंकार व्यक्ति को सहज नहीं
रहने देता। गरुड़ पक्षी बहुत अहंकारी होता है। उसे अपने सुन्दर परों पर बहुत अहंकार
होता है। अथर्ववेद में कहा गया है कि ‘सुपर्णयातुम्’ अर्थात् हे मनुष्य तू गरुड़ की चाल ;अहंकारद्ध छोड़ दे। अहंकारी व्यक्ति
स्वयं के लिए तथा राष्ट्र व समाज के लिए बहुत घातक सिद्ध होता है। अहंकार के कारण
ही महापंडित तथा प्रबल बलशाली रावण का पतन हो गया। अहंकार व्यक्ति को सन्मार्ग पर
चलने नहीं देता। अहंकार के कई पर्यायवाची शब्द हैं यथा दम्भ, घमण्ड, गर्व, अभिमान आदि, जो पात्र, समय, स्थान व परिस्थिति के सन्दर्भ में
सूक्ष्म अर्थान्तर के साथ प्रयुक्त होते हैं यानि पत्नी ने पति से पूछा, क्योंजी? अहंकार और घमंड में क्या अन्तर है? पति ने उत्तर दिया-‘तुम मुझे क्या समझती हो? यह मेरा अहंकार है और मैं तुम्हें कुछ
नहीं समझता, यह मेरा
घमण्ड है।’
‘अहंकार’ का शोधरूप Sublimation स्वाभिमान, स्वदेश प्रेम एवं स्वभाषा पर गर्व करना
गौरव समझा जाता है।
गौरीशंकर भारद्वाज (पूर्व विधायक)
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