जब कोई छोटा बच्चा चलना सीखता है तब प्रायः बार-बार गिर जाता है और
फिर से चलने के लिए तैयार उठ खड़ा हो जाता
है और एक दिन ऐसा आता है कि वह चलने में पूर्णतः समर्थ हो जाता है । ऐसे ही जब
हमने साईकिल सिखी थी तो न जाने कितनी बार गिरे होंगे परन्तु कुछ काल पश्चात् उसमें
भी हम पारंगत हो गए थे। इसका अर्थ यह हुआ कि आगे बढ़ने के लिए या सफल होने के लिए
सब से पहले हमें गिरना होता है जैसे कि हम देखते हैं कि एक
बछड़ा जब जन्म लेता है तो गाय उसको चाट-चाट कर साफ़ करती है, बछड़ा बार-बार गिरते
रहता है परन्तु उसकी माँ तब तक चाटते रहती है जब तक वो पूरी तरह खड़ा नहीं हो जाता।
केवल शरीर से ही भूमि पर गिर जाना मात्र पतित होना नहीं होता किन्तु जीवन में हम अनेक बार अनेक प्रकार से पतन को प्राप्त होते हैं। जब हमें कोई रोग विशेष हो जाता है और शरीर कमजोर हो जाता है तब हम कहते हैं कि हमारा शारीरिक स्वास्थ्य में गिराबट हो गया है। ठीक ऐसे ही जब हम किसी कार्य में अथवा अपने लक्ष्य के प्रति उत्साहहीन हो जाते हैं तब हम मन से पतित हो जाते हैं। हमारा मन सत्व-रज-तम तीनों गुणों से बना हुआ है अतः जब मन में सत्वगुण की न्यूनता और तमोगुण की अधिकता हो जाये और हम असत्य, अन्याय वा अधर्म आदि से युक्त हो जाते हैं तब हम मानसिक रूप से पतित हो जाते हैं। ऐसे अनेक प्रकार से हम गिरते रहते हैं। जब जब हम ईश्वर को छोड़ देते हैं तब तब हम गिर जाते हैं, पतन को प्राप्त होते रहते हैं। यदि एक व्यक्ति ने संकल्प लिया है कि मैं किसी मांस आदि अभक्ष चीज को नहीं खाऊंगा, शराब आदि नशीली चीज को नहीं पीऊंगा, किसी अश्लील चीज को नहीं देखूंगा इत्यादि फिर भी संकल्प के विपरीत यदि हम खा-पी लेते हैं, उस वस्तु का सेवन कर लेते हैं तो वहां पर हम पतित हो जाते हैं। सबसे पहले तो हम अपने ही नजर में गिर जाते हैं, जिससे हमारी संकल्प शक्ति में कमी आ जाती है और आत्मविश्वास भी घट जाता है। इस प्रकार दूसरे लोग भी हमें विश्वास नहीं करते और समाज में हमारी अप्रतिष्ठा भी हो जाती है।
एक पाठशाला में गुरु जी अपने शिष्यों को कुछ जीवनोपयोगी
शिक्षा दे रहे थे। वहां पर एक बालक एकलव्य जैसा भी था जो दूर से उस पाठ को श्रवण
कर रहा था। गुरुदेव ने उपदेश दिया कि बच्चो! अपने जीवन में किसी भी परिस्थिति में कभी
भी गिरना मत। बस इतना सुनना था कि उस उपदेश का शिष्य के हृदय में गहरा छाप पड गया
और उसका जीवन ही बदल गया। उसने इस छोटे से उपदेश को ही अपने जीवन का सर्वस्व मान
लिया, मन ही मन उसको गुरु जी का आदेश मान लिया। उसने मन में निश्चय कर लिया कि इस
वचन को मैं कभी भी भंग नहीं करूँगा,इसी को ही आजीवन पालन करूँगा। इसी को
ब्रह्म-वाक्य मान करके दिन रात केवल इसी के विषय में विचार करने लगा । सदा इसी के
चिंतन-मनन में खो गया। एक दिन ऐसा आया कि न
वो अपने आपके नज़र में कभी गिरा और न ही माता पिता के नज़र में गिरा और न ही समाज के
नज़र में गिरा और न ही ईश्वर के नज़र में गिरा । पग पग में अपने समस्त व्यवहारों में
बस यही निरिक्षण करते रहता था कि मैं कहीं गिर न जाऊं । क्योंकि उसने गुरु जी से
एक दिन के उपदेश में यह भी सुना था कि विद्या चार प्रकार से आती है , आगम काल,
स्वाध्याय-काल, प्रवचन-काल और व्यवहार-काल। इस विषय में गुरु जी ने एक दृष्टान्त
भी सुनाया था कि गुरु द्रोणाचार्य ने अपने विद्यार्थियों को एक उपदेश दिया कि
क्रोध नहीं करना चाहिये, सभी ने पाठ सुना दिया परन्तु युधिष्ठिर ने कहा कि मुझे
याद नहीं हुआ। फिर जब गुरु जी ने डंडे से मारा, ताड़ना की तब युधिष्ठिर जी ने कहा
कि गुरु जी मुझे पाठ याद हो गया। गुरु द्रोणाचार्य जी ने पूछा कि पहले तो पाठ याद
नहीं हुआ था फिर मार पड़ने मात्र से याद कैसे हो गया ? तब युधिष्ठिर ने कहा कि आपने
इतना मारा फिर भी मेरे मन में लेश मात्र भी क्रोध नहीं आया। इसका अर्थ हुआ कि पाठ
का चौथा स्तर व्यवहार में आ गया। हम अनेक बातों को, उपदेशों को केवल सुनते ही रहते
हैं और कुछ स्मरण रखते तथा कुछ को भूला देते हैं। नहीं तो एक ही उपदेश व्यक्ति के
जीवन को पूर्णतया परिवर्तन करने में, उसको उन्नति के शिखर पर पहुँचा देने में समर्थ
है, यदि वह उस सुनी हुई विद्या को अपने जीवन में व्यावहारिक स्तर पर क्रियान्वयन
करके चतुर्थ-स्तर पर हस्तगत कर लेता है। महर्षि दयानन्द जी जैसे अनेक साधु, सन्त, महात्मा,
ऋषि हुए हैं जिन्होंने अपने एक ही उपदेश के माध्यम से अमीचंद जैसे अनेकों के जीवन
को एक नया मोड़ ही दे दिया और सफलता और उत्कर्ष के शिखर को प्राप्त तक करा दिया। ये
केवल उपदेश करने वाले की विशेषता नहीं है अपितु उस उपदेश को क्रियान्वयन करके सफल
करने वाले की विशेषता है। यदि हम अपनी अज्ञानता, अल्पज्ञता वा असामर्थ्यता के कारण
कभी गिर भी जाते हैं तो भी सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये फिर से उठ खड़े होने के लिए
और सबसे अच्छी स्थिति तो यही है कि हम इतना सजग-सावधान व जागरूक रहें कि कभी गिरने
का अवसर ही प्राप्त न हो। एक अध्यात्मिक व्यक्ति अथवा एक योगाभ्यासी सदा
सजग- सावधान व जागरूक रहता है और अपने जीवन में कभी पतित होता ही नहीं। नवीन केवली



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