अपना धन अपनी
सम्पत्ति यहाँ तक की अपनी संतान को भी को राष्ट्र के लिए दान करने वाले इस वीर
सन्यासी स्वामी श्रद्धानंद जी से भला कौन परिचित नहीं होगा! यदि कोई नहीं है तो
उसे सुन लेना होगा क्योंकि इतिहास में ऐसे उदहारण विरले ही कभी पैदा होते है. जब
हजारों सालों की गुलामी में लिपटा भारत इस गुलामी को अपना भाग्य समझने लगा था. जब भारतीयों
की चेतना भी गुलामी की जंजीर में इस तरह जकड दी गयी थी कि लोग आजादी के सूरज की
बात करना भी किसी चमत्कार की तरह मानते थे. ऐसे समय में इस भारत में स्वामी
दयानन्द सरस्वती जी की अगुवाई में धर्म और देश बचाने को एक आन्दोलन खड़ा हुआ जिसे
लोगों ने आर्य समाज के नाम से जाना. इसी आन्दोलन के सिपाही भारत माँ के एक लाल का
नाम था स्वामी स्वामी श्रदानंद जिसने स्वामी दयानन्द जी महाराज से प्रेरणा लेकर
आजादी की मशाल लेकर चल निकला गुलामी के घनघोर अँधेरे में आजादी का पथ खोजने. तब
गाँधी जी ने कहा था की आर्यसमाज हिमालय से टकरा रहा हैं. वो हिमालय था कई हजार साल
का पाखंड और हजारों साल की गुलामी. लेकिन चट्टानों से ज्यादा आर्य समाज के होसले कहीं
ज्यादा ज्यादा बुलंद निकले.
सन 1856
को पंजाब के जालंधर जिले के तलवन गाँव में जन्मे मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) के
निराशापूर्ण जीवन में आशा की क्षीण प्रकार रेखा उस समय उदय हुई, जब
बरेली में उन्हें स्वामी दयानन्द का सत्संग मिला. स्वामी जी के गरिमामय चरित्र ने
उन्हें प्रभावित किया. उस समय जहाँ भारतवर्ष के अधिकतर नवयुवक सिवाय खाने-पीने,
भोगने और उसके लिए धनसंचय करने के अलावा अपना कुछ और कर्तव्य ना
समझते थे गुलामी में जन्म लेते थे और उस दासता की अवस्था को अपना भाग्य समझकर
गंदगी के कीड़ों की तरह उसी में मस्त रहते थे उस समय आर्यावर्त की प्राचीन संस्कृति
का सजीव चित्र खींचकर न केवल आर्यसंतान के अन्दर ही आत्मसम्मान का भाव उत्पन्न
किया अपितु यूरोपियन विद्वानों को भी उनकी कल्पनाओं की असारता दिखाकर चक्कर में
डाल दिया. जिस समय लोग राजनैतिक और धार्मिक दासता का शिकार थे. जिस समय लोग
दुर्व्यसनो में लीन थे उस समय स्वामी श्रद्धानन्द जी ने लोगों को आत्मचिंतन,
राष्ट्रचिन्तन करना सिखाया. स्वामी जी के
एक-एक कथन क्रांतिकारियों के लिए गीता बनते चले गये.
देश को राजनेतिक
परतंत्रता से मुक्त कर स्वामी जी का उद्देश्य धार्मिक था. ताकि हम धार्मिक रूप से
भी स्वतंत्र हो, हिन्दू समाज में समानता उनका लक्ष्य था. जातिवाद, छुआछूत
को दूर कर शिक्षा एवं नारी जाति में जागरण कर वह एक महान समाज की स्थापना करना
चाहते थे. जो की गुलाम भारत में बहुत कठिन काम था. छोटे बड़े छूत-अछूत का भाव लोग
वानरी के मृत बच्चे की तरह चिपकाए घूम रहे थे. 11 फरवरी 1923
को भारतीय शुद्धि सभा की स्थापना करते समय
स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा शुद्धि आंदोलन आरम्भ किया गया. स्वामी जी द्वारा इस
अवसर पर कहा गया की जिस धार्मिक अधिकार से मुसलमानों को तब्लीग और तंजीम का हक हैं
उसी अधिकार से उन्हें अपने बिछुड़े भाइयों को वापिस अपने घरों में लौटाने का हक हैं.
आर्यसमाज ने 1923 के अंत तक 30 हजार
मलकानों को शुद्ध कर दिया. लेकिन 23 दिसम्बर 1926 को
शुद्धि कार्य से रुष्ट होकर मुसलमानों ने स्वामी श्रदानंद की हत्या कर दी तो गाँधी
जी ने हत्यारे अब्दुल रशीद को भी अपना भाई बताया.
आर्यसमाज की ओर
से इस सम्बन्ध में पत्र लिखे गए, जिनका वर्णन पंडित अयोध्याय प्रसाद जी
बी.ए. द्वारा लिखित “इस्लाम कैसे फैला” में किया
गया हैं पर गाँधी जी हठ पर अड़े रहे ओर अहिंसा की अपनी परिभाषा बनाते रहे. जबकि
सावरकर ने रत्नागिरी के विट्ठल मंदिर में हुई शोक सभा में कहा- “पिछले
दिन, अब्दुल रशीद नामक एक धर्मांध मुस्लमान ने स्वामी जी के घर जाकर उनकी
हत्या कर दी. स्वामी श्रदानंद जी हिन्दू समाज के आधार स्तम्भ थे. उन्होंने सैकड़ों
मलकाना राजपूतों को शुद्ध करके पुन: हिन्दू धर्म में लाया था. वे हिन्दू सभा के
अध्यक्ष थे. यदि कोई घमंड में हो के स्वामी जी के जाने से सारा हिन्दुत्व नष्ट
होगा, तो उसे मेरी चुनौती हैं. जिस भारत माता ने एक श्रदानंद का निर्माण
किया, उसके रक्त की एक बूंद से लाखों तलवारें तथा तोपें हिन्दू धर्म को
विचलित कर न सकी, वह एक श्रदानंद की हत्या से नष्ट नहीं होगा
बल्कि अधिक पनपेगा.
“सन्यासी की
हत्या का स्मरण रखो’ लेख में सावरकर ने लिखा- हिन्दू जाति के पतन से
दिन रात तिलमिलाने वाले हे महाभाग सन्यासी. तुम्हारा परमपावन रक्त बहाकर तुमने हम
हिंद्युओं को संजीवनी दी हैं. तुम्हारा यह ऋण हिन्दू जाति आमरण न भूल सकेगी.
हुतात्मा की राख से अधिक शक्तिशाली इस संसार में अन्य कोई होगा क्या? वही
भस्म हे हिंदुयों! फिर से अपने भाल पर लगाकर संगठन ओर शुद्धि का प्रचार ओर प्रसार
करो ओर उस वीर सन्यासी की स्मृति ओर प्रेरणा हम सबके हृदयों में निरंतर प्रजल्वित
रहे, अपनी संपत्ति अपना परिवार, अपना जीवन और अपना सर्वस समाज के लिए दान
करने वाले अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानन्द जी को शत-शत नमन
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