आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द भारत के निर्माताओँ मेँ प्रमुख स्थान रखते हैँ । ये ऐसे महापुरूष हुए हैँ जिन्होने भारत की आत्मा को पुनर्जीवत किया जो १८५७ की असफलता से दुःख और निराशा मेँ डूब चुकी थी । पुनर्जीवन का यह कार्य जितना हिन्दी के माध्यम से सम्भव हो सकता था उतना किसी अन्य माध्यम से नही । सारे देश मेँ भ्रमण करते हुए हिन्दी भाषा के महत्व को भलीभांति समझ चुके थे । हिन्दी के प्रचार को वे इतने सजग थे कि अपने जीते जी उन्होने अपनी किसी पुस्तक के अनुवाद की अनुमति नही दी(गोकरूणानिधि को छोड़कर) वे कहते थे कि जिसे मेरे विचारो को जानने की उत्सुकता होगी वो हिन्दी भाषा सीखेगा । महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज को पंजाब प्रान्त मेँ हिन्दी का उद्धारक कहा जा सकता है । प्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर तो ऋषिवर को आधुनिक हिन्दी साहित्य का पिता कहते हैँ । परन्तु उनके अतिरिक्त देश के सभी जाने माने मूर्धन्य साहित्यकारोँ ने भी ऋषिवर की मुक्तकंण्ड से प्रशंसा की है। आज उनमेँ कुछ के विचार आपके सामने रखेगेँ ।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी- "मेरे ह्रदय मेँ श्री स्वामी दयानन्दजी सरस्वती पर अगाध श्रद्धा है । वे बहुत बड़े समाज संस्कर्ता, वेदोँ के बहुत बड़े ज्ञाता तथा समयानुकूल वेदभाष्यकर्ता और आर्य संस्कृति के बहुत बड़े पुरस्कर्ता थे।"
मुंशी प्रेमचन्द- आर्यसमाज ने साबित कर दिया है कि समाज सेवा ही किसी धर्म के सजीव होने का लक्षण है । हरिजनोँ के उद्धार मेँ सबसे पहला कदम आर्यसमाज ने उठाया, लड़कियोँ की शिक्षा की जरूरत सबसे पहले उसने समझी । वर्ण व्यवस्था को जन्मगत न मानकर कर्मगत सिद्ध करने का सेहरा उसके सिर है | जातिभेद भाव और खानपान के छूतछात और चौके चूल्हे की बाधाओँ को मिटाने का गौरव उसी को प्राप्त है । अंधविश्वास और धर्म के नाम पर किये जाने वाले हजारोँ अनाचारोँ कब्र उसीने खोदी ।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल- "पैगम्बरी एकेश्वरवाद की ओर नवशिक्षित लोगोँ को खिँचते देख स्वामी दयानन्द वैदिक एकेश्वरवाद लेकर खड़े हुए और सं॰१९२० से घूम घूम कर व्याख्यान देना आरम्भ किया । स्वामीजी ने आर्यसमाजियोँ के लिए आर्यभाषा या हिन्दी का पढ़ना आवश्यक ठहराया । संयुक्त प्रान्त और पंजाब मेँ आर्यसमाज के प्रभाव से हिन्दी गद्य का प्रचार बड़ी तेजी से हुआ । आज पंजाब मेँ हिन्दी की पूरी चर्चा इन्ही के कारण है।
मैथिलीशरण गुप्त- वैष्णव कुल का होने पर भी मैँ स्वामी दयानन्द को देश का महापुरूष मानता हूँ । कौन उनके महान कार्य को स्वीकार नही करेगा?
जो आज वेद ध्वनि गूंजती है।
कृपा उन्हीँ की यह कूजती है।
जयशंकर प्रसाद- महर्षि दयानन्द द्वारा प्रस्थापित आर्यसमाज इन सभी संस्थाओँ यथा ब्रह्मसमाज, प्रार्थनासमाज, तथा रामकृष्ण मिशन से अग्रणी रहा क्योँकि इसके द्वारा सैद्धान्तिक उपदेशोँ के स्थान पर रचनात्मक कार्योँ को व्यवहार मेँ लाया गया। भारतीय संस्कृति का प्रचार, बाल विवाह निषेध, विधवा विवाह का समर्थन और गुरूकुलोँ की स्थापना, आर्यसमाज के प्रमुख कार्य हैँ। स्त्री शिक्षा के लिए आर्य कन्या पाठशालाओँ की स्थापना का सर्वोत्तम प्रबंध है। स्वामी दयानन्द ने युगनिर्माता की भांति देश के सुप्त मस्तिष्क को प्रबुद्ध करने का प्रयत्न किया । उनका 'सत्यार्थ प्रकाश' इस दिशा मेँ निजी महत्व रखता है।
पं॰सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' "चरित्र, स्वास्थ्य, त्याग, ज्ञान और शिष्टता आदि मेँ जो आदर्श महर्षि दयानन्दजी महाराज मेँ प्राप्त होते हैँ, उनका लेशमात्र भी अभारतीय पश्चिमी शिक्षा संभूत नही, पुनः ऐसे आर्य मेँ ज्ञान और कर्म का कितना प्रसार रह सकता है, वह स्वंय इसके उदाहरण हैँ । मतलब जो लोग कहते हैँ कि वैदिक शिक्षा द्वारा मनुष्य उतना उन्नतमना नही हो सकता, जितना अंग्रेजी शिक्षा द्वारा होता है, महर्षि दयानन्द इसके प्रत्यक्ष खंडन हैँ । महर्षि दयानन्द जी से बढ़कर भी मनुष्य होता है, इसका प्रमाण प्राप्त नही हो सकता । यही वैदिक ज्ञान की मनुष्य के उत्कर्ष मेँ प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है, यहीँ आदर्श आर्य हमेँ देखने को मिलता है।
रामधारी सिँह दिनकर- "जैसे राजनीति के क्षेत्र मेँ हमारी राष्ट्रीयता का सामरिक तेज पहले पहल 'तिलक' मेँ प्रत्यक्ष हुआ वैसे ही संस्कृति के क्षेत्र मेँ भारत का आत्माभिमान स्वामी दयानन्द मेँ निखरा। रागरूढ़ हिन्दुत्व के जैसे निर्भीक नेता स्वामी दयानन्द हुए वैसा और कोई भी नहीँ। दयानन्द के समकालीन अन्य सुधारक केवल सुधारक थे किन्तु दयानन्द क्रान्ति के वेग से आगे बढ़े । वे हिन्दू धर्म के रक्षक होने के साथ ही विश्वमानवता के नेता भी थे।
महादेवी वर्मा- "स्वामी दयानन्द युग दृष्टा, युग निर्माता थे । मेरे संस्कारोँ पर ऋषि दयानन्द का प्रर्याप्त प्रभाव है । स्त्रियोँ को वेदाधिकार दिलाकर उन्होनेँ महिलाओँ मेँ नवीन क्रान्ति का बीजारोपण किया । नारी की स्थिति मेँ सुधार की अनवरत चेष्टा करते रहे । दयानन्दजी ने वेदोँ की वैज्ञानिक व्याख्यायेँ प्रस्तुत कर, वैदिक अध्ययन प्रणाली मेँ एक नूतन युक का सूत्रपात किया।
डा॰श्यामसुन्दर दास- "गोस्वामी तुलसीदास के ठीक २०० वर्ष पीछे गुजरात प्रदेश मेँ एक महापुरूष का अविर्भाव हुआ जिन्होने उत्तर भारत को ईसाई और मुसलमान होने से बचा लिया तथा सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक जीवन मेँ जो दुर्बलता आ गयी थी तथा उसमेँ जो बुराइयाँ घुस गई थीँ उनका अत्यन्त दूरदर्शिता पूर्वक निदान का एक ऐसा आदर्श स्थापित किया जो हिन्दी समाज की रक्षाकर उसकी भावी उन्नति का मार्गदर्शन हुआ है। इसमेँ संदेह नही कि स्वामी दयानन्द एक अवतारी पुरूष थे और भारत का परम कर्तव्य है कि उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर अपने को धन्य करेँ ।
मिश्र बन्धु- महर्षि दयानन्द सरस्वती ने देश और जाति का जो महान उपकार किया है, उसे यहाँ लिखने की आवश्यकता नहीँ है। अनेक भूलोँ और पाखण्डो मेँ फंसे हुए लोगो को सीधा मार्ग दिखलाकर उन्होने वह काम किया, जो अपने समय मेँ महात्मा बुद्ध, स्वामी शंकराचार्य, कबीरदास, बाबा नानक, राजा राममोहन राय ठौर-ठौर कर गये । दयानन्दजी ने हिन्दी मेँ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका इत्यादि अनुपम ग्रन्थ साधु और सरल भाषा मेँ लिखकर उसकी भारी सहायता की।
विशेष- महर्षि दयानन्द सत्य कहने में इसकी परवाह नही करते थे कि इससे कोई शुभचिंतक रुष्ट हो जायेगा, एक बार ऋषि के सत्संगी प्रसिद्द मुस्लिम विद्वान 'सर सय्यद अहमद खां' ने उर्दू की प्रशंसा करते हुए हिन्दी को 'गंवारू' भाषा कहकर उसका उपहास किया तो ऋषि ने पं.प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट जैसे साहित्यकारों की मौजूदगी में हिन्दी को 'कुलकमिनी
और उर्दू को वारविलासनी(वेश्या) कहकर उनको सटीक उत्तर दिया |........ डॉ विवेक आर्य (दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा)