दीपावली के दिन
हर वर्ष की भांति दिल्ली रामलीला मैदान में एक बार फिर स्वामी दयानन्द जी के
निर्वाण पर्व पर आर्यों का विशाल हुजूम देखने को मिला. वैदिक जय-जयकार करते ऋषि
भक्त स्वामी दयानन्द जी के समाज हित और देश हित के कार्यों की सराहना करते दे रहे
थे. किन्तु निर्वाणपर्व की पूर्व संध्या पर दिल्ली सभा के कार्यालय में यज्ञ के
पश्चात स्वामी सम्पूर्णानन्द जी ने दुखद स्वर में एक बात कही जिसने सभी को कुछ पल
के लिए भावुक कर दिया था. कि वैसे तो दीपावली का त्यौहार खुशियों का त्यौहार है
किन्तु जब दीपावली की रात आती है तो मन में एक दुःख के लहर सी भी दौड़ जाती है कि
वर्षो पहले आज की ही रात भारत माता ने अपने एक महान सपुत्र दया के देव दयानन्द को
खोया था. दुनिया में अभी तक अनेक महापुरुष हुए और उनके सिद्धांत मानने वाले भी करोड़ों
लोग है किन्तु वो लोग उनके सिद्धांतों को उस स्वरूप में नहीं बचा पाए जिस स्वरूप
में उन्हें बनाया गया था. परन्तु आर्य समाज एक ऐसी संस्था है जिसने स्वामी जी के
महान सिद्धांतों को उसी स्वरूप में बचाकर तो रखा ही साथ में यदि किसी ने उन
सिद्धांतों के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिस की तो उसे बाहर का रास्ता भी दिखाया.
जब
जगन्नाथ ने अंग्रेजो के बहकावे में आकर ऋषि दयानन्द जी को दूध में जहर मिलाकर दे
दिया, स्वामी जी की हालत बिगड़ने
लगी, डॉ अलीमरदान ने दवा के बहाने स्वामी जी के शरीर में जहर से भरा
इंजेक्शन लगा दिया और स्वामी जी के शरीर से जहर फूटने लगा अतः रसोईये को अपनी गलती
महसूस हुई,तो
उसने स्वामी जी के पास जाकर माफी मांगी. मुझे क्षमा कर दिजिए,स्वामी
जी। मैने भयानक पाप किया हैं, आप के दूध में शीशायुक्त जहर मिला दिया
था. “ये तुने
क्या किया?समाज
का कार्य अधुरा ही रह गया। अभी लोगों की आत्मा को और जगाना था, स्वराज
की क्रांति लानी थी. पर जो होना था हो गया
तु अब ये पैसा ले और यहां से चला जा नहीं तो राजा तुझे मृत्यु दंड दे देगें। ऐसे
थे हमारे देव दयानन्द जी, दया का भंडार,करुणा के
सागर आकाश के समान विशाल ह््रदय जो अपने हत्यारे को भी क्षमा कर गये थे। जिसका
दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलेगा दीपावली की रात देश में लाखो दीप जलाकर
जब एक दीप बुझ गया.
यू तो स्वतन्त्र
भारत में ऋषि निर्वाणोत्सव पहली बार सन 1949 में
मनाया गया और इस अवसर पर मुख्य वक्ता स्वतन्त्र भारत के राष्ट्रध्यक्ष चक्रवर्ती
राजगोपालचारी थे इस अवसर पर समारोह की अध्यक्षता कर रहे केन्द्रीय मंत्री श्री नरहरि विष्णु गाडगिल जी
ने बोलते हुए कहा कि “यदि यह देश स्वामी दयानन्द के मार्ग पर चला
होता तो कश्मीर पाकिस्तान में न जाता” इस बात को अल जमीयत अखबार ने मोटे अक्षरो में
मुख्य पेज पर दिया। इसकी एक प्रति लेकर मौलाना अबुल कलाम आजाद तत्कालीन
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के पास लेकर पहुंचे और शिकायत की कि आपका मन्त्री
शुद्धी का प्रचार कर रहा है. अगले साल 1950 मुख्यवक्ता के रुप में सरदार बल्लभभाई पटेल पधारे और उन्हौनें अपने
भाषण में कहा कि “यदि हमनें स्वामी दयानन्द की बात मानी होती तो
आज कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में लटका न होता.”
इसके
कुछ दिन बाद ही बम्बई में सरदार पटेल जी का निधन हो गया और उनके इस कथन के
अभिप्राय को पूरी तरह न जाना जा सका।
लेकिन इंडियन एक्सप्रैस नई दिल्ली के 7 जून 1990 के अंक
में प्रकाशित एक व्क्तव्य से पूरी तरह स्पस्ट हो गया उसमें लिखा था. देश के
स्वतंत्र हो जाने पर यहां रहे ब्रिटिष सैनिकों अधिकारियों ने भारत सरकार को कश्मीर
का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपने की सलाह दी थी. इससे पाकिस्तान को कश्मीर
के मामले को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाने का अवसर मिला. इसी के परिणाम स्वरूप भारत
को पाकिस्तान के तीन चार आक्रमणों का सामना करना पड़ा. इसी संदर्भ में सरदार पटेल
के अनुसार यह सब ऋषि दयानन्द की बात न मानने के कारण हुआ. सत्यार्थ प्रकाश के छटे
सम्मुलास में उन्होंने लिखा है कि मंत्री स्वराज स्वदेश में उत्पन्न होने चाहिए.
वे जिनकी जड़े अपने देश की मिट्टी में हो,जो
विदेश से आयातीत न हो और जिनकी आस्था अपने धर्म संस्कृति ,सभ्यता,परम्पराओं
में हो. दयानन्द के उक्त लेख की अवेहलना के कारण ही हमने इतनी हानि उठाई है.
विदेशी प्रशासक कुशल तो हो सकता है,पर
हितेषी नहीं. पटेल आर्य समाज के कार्यो से भली भांति परिचित थे. जब नेहरु ने पटेल
से कहा कि हैदराबाद ने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र में
गुहार लगाई है, ऐसे में उसके अंतरिम मामलों में दखल देना क्या उचित रहेगा? “सरदार पटेल ने नेहरु
की ओर देखते हुए कहा आर्य समाज के नेत्तर्त्व में जनक्रांति हो चुकी है जिसने
हैदराबाद के विलय की नींव रख दी है बस आप पुलिस कारवाही के आदेश दीजिये..
स्वामी दयानन्द
जी का मत था भिन्न-भिन्न भाषा प्रथक-प्रथक शिक्षा और अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति
दुष्कर है. दयानन्द के शब्दों में जब तक एक मत एक हानि-लाभ,एक
सुख-दुःख न मानें तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है. जब भूगोल में एक मत था उसी में
सबकी निष्ठा थी और एक दूसरे का सुख-दुःख,हानि-लाभ
आपस में सब समान समझते थे तभी तक सुख था. स्वामी जी हमेशा कहते थे एक धर्म,एक भाषा
और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण हित होना कठिन है. सब उन्नतियों का केन्द्र
स्थान एक है। जहां भाषा व भावना में एकता आ जाए वहां सागर की भांति सारे सुःख एक-एक
करके प्रवेश करने लगते हैं. मैं चाहता हूं कि देश के राजा महाराजा अपने शासन में
सुधान व संशोधन करें. अपने-अपने राज्य में धर्म भाषा और भाव में एकता करें। फिर भारत
में आप ही आप सुधार हो जाएगा.....Rajeev choudhary