Friday, 16 November 2018

सृष्टि रचना का उद्देश्य जीवों को भोग व अपवर्ग प्रदान कराना”


मनुष्य चेतन प्राणी है। मनुष्य का शरीर पंच भौतिक तत्वों से बना है। पृथिवी (सूर्य, चन्द्र, सभी ग्रह व उपग्रह), अग्नि, वायु, जल, आकाश पंच भौतिक पदार्थ हैं। यह सभी पदार्थ जड़ हैं। इनका उपादान कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति है जो कि जड़ है। यह प्रकृति अनादि? नित्य व अविनाशी तत्व है। सृष्टि में ईश्वर और जीव अन्य दो अनादि चेतन सत्तायें हैं। चेतन का गुण ज्ञान, प्रयत्न, क्रिया करना है। प्रकृति जड़ होने से स्वयं सृष्टि के रूप में उत्पन्न व प्रकट नहीं हो सकती अपितु इसे एक ज्ञानवान, बलवान, इसके बाहर व भीतर व्याप्त चेतन सत्ता ही सृष्टि के रूप में रचना करके उत्पन्न कर सकता व करता है। यह सृष्टि सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, अनुत्पन्न, अजन्मा, अविनाशी, अमर, नित्य ईश्वर से उत्पन्न हुई है जिसका उद्देश्य जीवों को भोग व अपवर्ग प्रदान करना है। यह ईश्वरीय सत्ता मनुष्य द्वारा योगाभ्यास की क्रियाओं से वेदादि सत्य शास्त्रों के स्वाध्याय और हृदय गुहा में उपस्थित जीवात्मा में ईश्वर के निरन्तर चिन्तन, मनन, उसके प्रति पूर्ण समर्पण, असत्य का सर्वथा त्याग व परार्थ के लिये सतत प्रयत्नशील होने पर प्रकट होती है। ईश्वर ने ही जीवों के भोग व अपवर्ग के लिये इस जगत् की रचना की है। वही इस सृष्टि का पालन कर रहा है और इसकी अवधि पूर्ण होने इसकी प्रलय करेगा। प्रलय का कारण सृष्टि का आदि होना है। जो पदार्थ आदि व सादि स्वरूप व स्वभाव वाले होते हैं उनका अन्त व विघटन अथवा विनष्ट होना दर्शन शास्त्र व विज्ञान के नियमों के अनुसार अवश्म्भावी होता है।

संसार में तीन अनादि व नित्य पदार्थ हैं। इनके नाम है ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, न्यायकारी, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, पवित्र स्वभाव वाला है। वह आप्तकाम व सभी प्रकार की इच्छा एवं कामनाओं से मुक्त है। ऐसा कोई सुख व आनन्द नहीं है, जो उसे सुलभ व प्राप्त न हो। उसमें किसी प्रकार का कोई दुःख भी नहीं है जिसे दूर करने की उसको आवश्यकता हो। अतः आनन्दस्वरूप ईश्वर को किसी भी पदार्थ की इच्छा व अभिलाषा नहीं है यहां तक की उसे मनुष्यों से भी उसकी भक्ति व उपासना की आवश्यकता नहीं है। जीवात्मा एक अल्प व अणु परिमाण, निराकार, अल्पज्ञ, चेतन, आनन्द रहित, आनन्द व सुखाभिलाषी, एकदेशी, अल्प-ज्ञान-बल-क्रिया सामर्थ्यवाला अनादि व नित्य पदार्थ है जिसका कभी अभाव व अन्त नहीं होता। यह जीवात्मा अपने पूर्व कृत कर्मों के अनुसार उनके फल भोग के लिये जन्म व मृत्यु को प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्ति करते हुए यह जब सभी सांसारिक इच्छाओं से मुक्त होकर ईश्वर साधना करते हुए योग विधि से ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है तब इसका मोक्ष अर्थात् मुक्ति हो जाती है। मुक्ति का अर्थ है जन्म व मरण से होने वाले दुःखों सहित मनुष्य व अन्य योनियों में जन्म व मरण के बीच की अवधि में होने वाले सभी प्रकार के शारीरिक दुःखों से पूर्ण मुक्ति व उनकी निवृत्ति का होना। जीवात्मा का स्वभाव अपने अल्पज्ञ ज्ञान की सृद्धि करना और उसके अनुसार क्रिया कर अपने दुःखों की निवृत्ति करना वा सुख प्राप्त करना है। जीवात्मा के लिंग इच्छा, द्वेष, प्राण-अपान, सुख, दुःख, आंखे मींचना, इन्हें खोलना व बन्द करना, प्रयत्न करना आदि हैं। जैसा इसका कर्माशय अर्थात् भूतकाल में किये अभुक्त कर्मों का संग्रह होता है व उसके अनुरुप वासना होती है, उसी के अनुसार इसका जन्म होता है व इसे सुख व दुःख मिलते हैं। इसे मिलने वाले जन्म व सुख-दुःखों का दाता परमेश्वर है। दुःखों से मुक्त होने का एक ही उपाय है असत्य व पाप कर्मों का त्याग और शुभ व पुण्य कर्मों का आचरण। ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर उसका ध्यान व चिन्तन करते हुए अपने आप को सभी प्रकार के वेद व ऋषि ग्रन्थों के निषेधात्मक कर्मों का त्याग तथा सभी करणीय व विधेय कर्मों का आचरण। ऐसा करने से ही मनुष्य वा इसकी जीवात्मा दुःखों से मुक्त होती है और इसकी आत्मा का कल्याण व उन्नति होती है।
प्रकृति एक जड़ पदार्थ है। मूल व कारण प्रकृति में तीन गुण होते हैं जो सत्व, रज व तम कहे जाते हैं। इन गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति कहलाती है। विज्ञान की भाषा में यही धनात्मक, ऋणात्मक व जाड्य-निष्क्रिय आवेश वाले कण कहे जाते हैं। इनसे मिलकर परमाणु का निर्माण होता है। इन गुणों में विषमता व विकार होकर ईश्वर द्वारा इस सृष्टि का निर्माण होता है। प्रकृति के आरम्भ के कुछ प्रमुख विकार महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रायें, पांच स्थूलभूत, अन्तःकरण चतुष्टय आदि हैं। सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, वायु, जल, आकाश इसी प्रकृति का विकार हैं जिन्हें पंचमहाभूत कहा जाता है। मनुष्य का शरीर जिसमें पांच ज्ञान व पांच कर्मेन्द्रियां, अन्तःकरण जिसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि हैं, यह सब त्रिगुणात्मक प्रकृति के ही विकार हैं। इन्हें ईश्वर सृष्टि के आदि में उत्पन्न करता है। अनेक लोगों को प्रकृति विषयक अनेक शंकायें होती हैं। कोई कहता है कि यह स्वमेव उत्पन्न हो जाती है। ऐसा सम्भव नहीं है। इसका कारण प्रकृति का जड़ होना है। जड़ पदार्थों में किसी प्रकार की बुद्धि व ज्ञानजन्य सहेतुक रचना होने की सामर्थ्य नहीं है। सभी रचनायें किसी चेतन सत्ता जिसे निमित्त कारण कहते हैं, उसी के द्वारा सम्भव होती हैं। आटे, ईधन, चूल्हा, सभी प्रकार के पात्र व बर्तन, जल आदि के एक स्थान पर होने पर भी किसी स्थिति में रोटी नहीं बन सकती जब तक कि कोई चेतन सत्ता के रूप में मनुष्य अर्थात् स्त्री व पुरुष रोटी को न बनावें। इसी प्रकार से यह सृष्टि भी बिना निमित्तकारण परमात्मा के बिना बनाये स्वमेव उत्पन्न नहीं हो सकती। कुछ लोगों का भ्रम है कि यह सृष्टि ईश्वर से बनी है। वह ईश्वर को सृष्टि का उपादान कारण भी मानते हैं या इसकी उपेक्षा करते हैं। सूक्ष्म विचार करने पर ज्ञात होता है कि ईश्वर सृष्टि का उपादान कारण नहीं है। यह इन विचारों की विद्वानों की भ्रान्ति है। जिस प्रकार मनुष्य बिना भवन सामग्री के मकान नहीं बना सकता, रसोईयां बिना खाद्य व अन्य सामग्री के भोजन तैयार नहीं कर सकता, आचार्य बिना पुस्तकों व विद्यार्थियों को अध्ययन नही करा सकता, उसी प्रकार ईश्वर केवल अपने अस्तित्व से बिना सृष्टि निर्माण में सहायक जड़ परमाणुरूप सामग्री के सृष्टि को नहीं बना सकता। कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि यह सृष्टि सदा से बनी हुई है ओर सदा इसी रूप में बनी रहेगी। यह मान्यता भी विज्ञान व दर्शन शास्त्र के सिद्धान्तों व मान्यताओं के विरुद्ध है। जो पदार्थ सावयव अर्थात् अवयवों से मिलकर बना होता है, जैसी की यह सृष्टि है, वह नाशरहित व अनन्त न होकर नाशवान होती है। अतः ईश्वर द्वारा उपादान कारण प्रकृति से बनी यह सृष्टि ईश्वर की अनादि प्रजा जीवों के पूर्व कर्मों के अनुसार सुख-दुःखरुपी फल भोग एवं अपवर्ग अर्थात् मोक्ष के लिए बनी है। इसे जानकर हमें दुःखों के कारण अज्ञान, अविद्या, मिथ्या आचरण व पापाचरण को दूर करना है और ईश्वरोपासना एवं सदाचरण को धारण कर दुःखों से मुक्त होकर अपवर्ग अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करना है।
हमने मनुष्य के जन्म-मरण तथा सुख-दुःख के कारणों व अपवर्ग वा मोक्ष पर संक्षेप में चर्चा की है। यह भी बताया है कि हमारी यह सृष्टि और हमारे शरीर परमात्मा ने हमारे पुण्य व पाप कर्मों के फलों का भोग कराने के लिये बनाये हैं। इस विषय को अधिक विस्तार से जानने के लिये स्वामी दयानन्द कृत ‘‘सत्यार्थप्रकाश”, दर्शन ग्रन्थों सहित स्वामी विद्यानन्द सरस्वती कृत दार्शनिक शैली पर लिखा गया ‘‘तत्वमसिग्रन्थ पढ़ना चाहिये। इसे पढ़कर आप सृष्टि सहित ईश्वर एवं जीवात्मा विषयक सभी रहस्यों एवं इनके सत्य स्वरूप को जान सकेंगे। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

Thursday, 15 November 2018

मनुष्य का मानव और दानव बनना उसके अपने हाथों में हैं

ससार में हम अनेक प्राणियों को देखते हैं। दो पैर और दो हाथ वाला प्राणी जो भूमि पर सीधा खड़ा होकर व सिर ऊंचा उठाकर चलता है, जिसके पास बुद्धि है और जो सोच विचार कर अपने काम करता है, उसे मनुष्य कहते हैं। मनुष्य की विशेषता यह है कि उसके पास एक आत्मा और बुद्धि है। मनुष्य का अपना एक सूक्ष्म शरीर होता है जिसमें पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्म इन्द्रियां, मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार आदि उपकरण होते हैं। मनुष्य योनि में बुद्धि सोच विचार कर उचित अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य, अच्छे-बुरे का विचार कर अपने हित-अहित के अनुसार कार्य करती है। मनुष्य अच्छे काम करके श्रेष्ठ व बुरे काम करके हेय बनता है। बुरे गुणों वाले मनुष्यों को कोई पसन्द नहीं करता। प्रश्न है कि क्या बुरा मनुष्य भी अच्छा बन सकता है तो इसका उत्तर हमें हां में मिलता है। बुरा मनुष्य भी चाहे तो वह सत्याचरण अर्थात् धर्म को धारण कर देव कोटि का अच्छा मनुष्य बन सकता है। इसके लिये उसके माता-पिता, आचार्य आदि व उसे स्वयं क्या करना होता है यह विचारणीय है।

मनुष्य के पास बुद्धि है जिसका विषय ज्ञान होता है। ज्ञान प्राप्ति के लिये योग्य व श्रेष्ठ गुरुओं, धार्मिक ज्ञानी माता-पिताओ, सगे सम्बन्धियों व श्रेष्ठ साहित्य की आवश्यकता होती है। संगति का भी मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है। अतः अच्छा मनुष्य बनने के लिये मनुष्य को अच्छे लोगों की ही संगति करनी होती है। यदि वह अपनी संगति पर ध्यान नहीं देंगे और बुरे व्यक्तियों की संगति करेंगे तो निश्चय ही वह अच्छे नहीं बन सकते। उनमें बुरे लोगों के संग से बुराईयां अवश्य ही आयेंगी। मनुष्य को बुराईयों से बचाने के लिये माता-पिता का धार्मिक विद्वान होना चाहिये। धार्मिक विद्वान से अभिप्राय है कि वह किसी मत-मतान्तर को मानने वाला न होकर सत्य मान्यताओं, सत्य सिद्धान्तों और सदाचारी व धार्मिक विद्वानों के मार्ग पर चलने वाले हों। ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानते हों और ईश्वरोपासना आदि कर्तव्यों का निर्वाह करते हों। धर्म का प्रमुख ग्रन्थ केवल वेद है और वेद के अनुकूल ग्रन्थों की शिक्षाओं को ही हमें जानना व उनका आचरण करना चाहिये। संसार व देश में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं। उन्हें धर्म कदापि नहीं कह सकते। धर्म उसे कहते हैं जिसमें शत-प्रतिशत सत्य सत्य मान्यताओं और सिद्धान्तों का विधान हो। किसी भी असत्य व मिथ्या मान्यता का विधान धर्म में नहीं होता है। ऐसा धर्म केवल वैदिक धर्म ही है। हम जब मत-मतान्तरों पर दृष्टि डालते हैं तो मनुष्यों द्वारा अस्तित्व में आये सभी मत-मतान्तरों में अवैदिक, मिथ्या व असत्य मान्यतायें एवं परम्पराओं की भरमार देखते हैं।
महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में वैदिक मत की मान्यताओं व सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला है। वैदिक मत की परीक्षा करने पर परिणाम निकला है कि इसकी कोई मान्यता असत्य नहीं है। इस कारण वेद की सभी मान्यतायें अखण्डनीय एवं सत्य हैं। यह भी जान लेना चाहिये कि वैदिक मत किसी मनुष्य, ईश्वर पुत्र व ईश्वर के सन्देश वाहक द्वारा प्रवर्तित नहीं है अपितु वेदों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में सृष्टिकर्ता ईश्वर ने ही दिया था। वेद में सभी सत्य विद्यायें बीज रूप वा संक्षिप्त रूप में हैं। इसके साथ ही ईश्वर व जीवात्मा की वेदों में विस्तार से चर्चा मिलती है। वेदों की कोई मान्यतता असत्य, सृष्टिक्रम के विरुद्ध, सत्य ज्ञान के विपरीत व युक्ति व तर्क के विपरीत नहीं है। इसके विपरीत कोई मत यह दावा नहीं करते कि उनके धर्म व मत-ग्रन्थ की पुस्तकें सब सत्य विद्याओं से युक्त हैं। सभी मतों में अविद्या व अज्ञान की अनेक बातें विद्यमान हैं। अतः अधूरे ज्ञान, मिथ्या मान्यताओं व परम्पराओं के ग्रन्थ होने से मत-मतान्तरों के द्वारा मनुष्य का कल्याण नहीं होता। मनुष्य को मांसाहार, अण्डों का सेवन, मछली का सेवन, ध्रूमपान व तम्बाकू का सेवन, मदिरा पान व नशा आदि कदापि नहीं करने चाहियें। यह पाप कर्म हैं जिसका ईश्वर मनुष्य को दुःख के रूप में दण्ड देता है। देश में ऐसे अनेक मत हैं जहां इन बातों को बुरा नहीं माना जाता अपितु इनकी प्रेरणा भी कई मतों में की गई है। इसका कारण अविद्या है। अतः मत-मतान्तरों की मान्यताओं का आचरण करने से मनुष्य साधारण मनुष्य ही बन कर रह जाता है। ऐसा मनुष्य अनेक अधर्म व पाप के काम भी कर सकता है व करता है जिससे धार्मिक व सज्जन मनुष्यों को कष्ट होता है। ऐसे पापमय लोगों के पाप व दुष्कृत्यों को कुचलने में लिये कठोर नियम व कानून होने चाहियें परन्तु ऐसे लोगों को व्यवस्था से अपने पापों का उचित व कठोर दण्ड न मिलने से मानव समाज श्रेष्ठ समाज नहीं बन पा रहा है। आज के समाज में आर्थिक व चारित्रिक भ्रष्टाचार एवं परिग्रह की भावना अधिक पाई जाती है। लोगों में दुःखी व निर्धन तथा दुर्बलों के प्रति सेवा व सहायता की भावना के दर्शन कम ही होते हैं। समाज में निर्बलों का शोषण और अन्याय देखने को मिलता है। अतः यही कहा जा सकता है कि समाज में देव कोटि के अच्छे मनुष्य कम ही हैं। अच्छा मनुष्य कैसे बन सकता है, इस पर विचार करते हैं।
मनुष्य सद्गुणों व संस्कारों से युक्त हो इसके लिये वैदिक सत्य धर्म में 16 संस्कारों का विधान किया गया है। यह सोलह संस्कार गर्भाधान से आरम्भ होकर मृत्यु होने पर अन्त्येष्टि संस्कार के रूप में सम्पन्न होते हैं। सन्तान के प्रसव से पूर्व वैदिक परिवारों के माता-पिताओं को श्रेष्ठ सन्तान की प्राप्ति के लिये अनेक नियमों व व्रतों का पालन करना होता है। उन्हें सत्य नियमों का पालन करते हुए संयम व पवित्रता से युक्त जीवन व्यतीत करना होता है। उन्हें अपने मन को श्रेष्ठ धार्मिक विचारों से युक्त रखना होता है। प्रातः व सायं ईश्वर का ध्यान, चिन्तन, मनन, स्वाध्याय, अग्निहोत्र, माता-पिता व आचार्यों की सेवा आदि करनी होती है। शुद्ध व पवित्र भोजन करना होता है। घर व आस पास का वातावरण भी शुद्ध व पवित्र तथा उपद्रव रहित होना चाहिये। गर्भस्थ सन्तान इस अवधि में माता-पिता के जीवन की बातों व गुणों को ग्रहण करता है और उसके अनुरूप ही वह बनता है। जन्म के बाद भी बालक को ज्ञान व सदाचरण की शिक्षा माता-पिता व आचार्य आदि दिया करते हैं। बुरे कार्यों के बुरे परिणामों से भी उसे अवगत कराया जाता है। वैदिक शिक्षा गुरुकुल में धार्मिक, संयमी, निर्लोभी, शिष्यों को माता-पिता के समान पालन करने वाले, महत्वाकांक्षा से रहित, सच्चरित्र विद्वान आचार्यों द्वारा दी जाती थी। आजकल ऐसे आचार्यों का स्कूल व कालेजों सहित सर्वत्र अभाव है। वातावरण का भी ऐसा प्रभाव है कि आजकल के बच्चे आध्यात्म व वेद प्रचार के मार्ग पर न चलकर धनोपार्जन व सरकारी नौकरी आदि को ही प्राथमिकता देते हैं। इससे समाज में असन्तुलन बढ़ रहा है। देश भर का समस्त धन कुछ हजार व लाख लोगों की जेबों व तिजोरियों की ही शोभा बढ़ाता है जिससे सामाजिक असन्तुलन एवं अनेक समस्यायें उत्पन्न होती हैं। देश के बाह्य शत्रु भी नागरिकों को प्रलोभन देकर व अन्य प्रकार से उन्हें अपने पक्ष में करके देश में अस्थिरता उत्पन्न करते रहते हैं। देश के बहुत से प्रभावशाली महत्वांकाक्षी लोग भी ऐसे देश विरोधी कार्यों की उपेक्षा करते हैं और शासक दल के अच्छे कार्यों की भी आलोचना करने के साथ उनमें बाधायें खड़ी करते हैं। इन कारणों से भी समाज में अच्छे चरित्रचवान् लोगों की संख्या जो 90 से 95 प्रतिशत होनी चाहिये वह अति न्यून होती है।
वेद और वैदिक साहित्य मनुष्य को देव कोटि का देवता व महापुरुष बनाता है। सन्ध्या व अग्निहोत्र तथा पितृ यज्ञ आदि से भी मनुष्य सन्मार्गगामी होकर देव बनता है। योग से भी वही लाभ होते हैं जो वैदिक सन्ध्या से होते हैं। आसन योग का एक अंग है परन्तु बहुत से लोग आसनों को ही योग मान लेते हैं। योग तो ध्यान व समाधि को कहते हैं। यदि आसन कर हम ध्यान व समाधि की ओर नहीं बढ़ते तो योग से अधिक लाभ नहीं होता। अतः मनुष्य को वैदिक शिक्षा और संस्कार देकर व सत्पुरुषों की संगति व आर्यसमाज के सत्संगों के माध्यम से साधारण मनुष्यों को देव कोटि का मनुष्य बनाया जा सकता है। जो मनुष्य सन्ध्या, योग, अग्निहोत्र, वेद आदि ग्रन्थों के स्वाध्याय से दूर होगा वह अपने जीवन व चरित्र की भली प्रकार से रक्षा नहीं कर सकता। वैदिक मान्यता के अनुसार एक साधारण व अपराधी कोटि का मनुष्य भी वैदिक धर्म की शरण में आकर देवता बन सकता है। इतिहास में इसके अनेक उदाहरण हैं। आचार्य चाणक्य ने अपने योग्यता, बुद्धि, ज्ञान व चरित्र बल से चन्द्रगुप्त मौर्य को आदर्श व शक्तिशाली राजा महाराज विक्रमादित्य बना दिया था। गुरु विरजानन्द ने स्वामी दयानन्द को ऋषि दयानन्द तथा ऋषि दयानन्द और उनके साहित्य ने स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी महात्मा हंसराज और स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि का निर्माण किया। आर्यसमाज की विचारधारा के सम्पर्क में आकर भी अनेक चोर व डाकू तथा भ्रष्ट पटवारी आदि भी दुष्कर्मों का त्याग कर आर्य व देवता बने हैं। अतः श्रेष्ठ मनुष्य बनने तथा अपने इहलोक व परलोक को सुधारने के लिये सभी मनुष्यों को वेद और आर्यसमाज को अपनाना चाहिये। इनकी अच्छी शिक्षा व संस्कारों से मनुष्य का मन व बुद्धि शुद्ध होकर व सभी बुराईयों के त्याग से वह सच्चा व श्रेष्ठ मानव अथवा देवता बन सकता है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य

संसार में संस्कृत भाषा कैसे अस्तित्व में आई

संसार में अनेक भाषायें हैं। सबका अपना अपना इतिहास है। कोई भाषा अपनी पूर्ववर्ती किसी भाषा का विकार है व वह उसमें सुधार होकर बनी है तो कोई भाषा अनेक भाषाओं से शब्दों को लेकर व अन्य अनेक भौगोलिक आदि कारणो ंसे अस्तित्व में आईं हैं। संस्कृत भाषा की बात करें तो यह भाषा संसार की आदि भाषा होने से सबसे प्राचीन है और अन्य सब भाषाओं की जननी भी हैं। भाषा का सम्बन्ध ज्ञान से होता है। भाषा है तो ज्ञान है और ज्ञान का आधार भाषा ही होती है। भाषा और ज्ञान दोनों मनुष्य के आविष्कार न होकर यह दोनों उसको परमात्मा से ही मिलते हैं। यदि परमात्मा से मिले हैं तो परमात्मा को इनका ज्ञान अवश्य होगा। इसका उत्तर हां में मिलता है। परमात्मा की प्रमुख रचना यह सृष्टि या ब्रह्माण्ड है। यह ज्ञान व विज्ञान के नियमों के आधार पर परमात्मा ने बनाया है। इससे सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता व पालनकर्ता ज्ञानस्वरूप परमात्मा ही सिद्ध होता है। परमात्मा का एक नाम अग्नि है जिसके अर्थ ज्ञानस्वरूप व प्रकाशस्वरूप आदि हैं। यदि परमात्मा ज्ञानस्वरूप है तो उसकी भाषा अवश्य ही होगी। इस चर्चा से यह सिद्ध होता है कि परमात्म ज्ञानी है और उसकी भाषा भी है। वह भाषा कौन सी है? इसका उत्तर यह है कि संसार में ज्ञान की आदि व प्रथम पुस्तक का पता किया जाये। जो संसार की आदि पुस्तक है, उसके यदि सभी सिद्धान्त सृष्टिक्रम के अनुकूल हैं तो वह अवश्य ईश्वरीय ज्ञान होगा और उसकी भाषा भी ईश्वरीय ही होगी। इसका कारण यह है कि संसार के आदिकाल में जब ईश्वर से मनुष्य सृष्टि हुई तो परमात्मा का यह कर्तव्य था कि वह मनुष्य को, मनुष्य शरीर, ज्ञान व कर्मेन्द्रियां, मन, बुंद्धि, चित्त एवं अहंकार आदि उपकरणों को प्रदान करने साथ सत्य ज्ञान व भाषा भी प्रदान करे। परमात्मा ने हमारे मानव शरीर को बनाकर हमें दिया है देता आ रहा है। इसी प्रकार से उसका यह कर्तव्य था कि वह आदि मनुष्यों को अन्य सभी शारीरिक उपकरणों सहित ज्ञान व भाषा से भी युक्त करता। यदि हम यह कहते हैं कि परमात्मा ने आदि मनुष्यों को ज्ञान दिया था तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि परमात्मा ने ज्ञान के साथ भाषा भी दी थी। हमारे अध्यापक या माता-पिता हमें जो बातं् सिखाते हैं अथवा हमें जो ज्ञान देते हैं वह अपनी ही भाषा में देते हैं। ज्ञान के साथ भाषा जुड़ी हुई है। बिना भाषा के ज्ञान का अस्तित्व नहीं होता। अतः सृष्टि की आदि में जो भाषा थी वही ईश्वर की भाषा सिद्ध होती है और संसार में जो सबसे प्राचीन वेदों का ज्ञान है वह भी ईश्वर से मिला हुआ होना सिद्ध होता है। परीक्षा कर प्राचीनतम ज्ञान व भाषा के ईश्वरोक्त होने की पुष्टि की जा सकती है।

महर्षि दयानन्द एक असाधारण, उच्च कोटि के विद्वान व ऋषि थे। वह योगी थे और ईश्वर का साक्षात्कार भी उन्हें हुआ था। उनको ईश्वर का साक्षात्कार होने का अनुमान उनके ज्ञान व कर्मों सहित उनके ग्रन्थों में उपलब्ध कथनों के आधार पर किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने अपने अध्ययन, पुरुषार्थ एवं अनुभव से इस रहस्य का पता लगाया था कि सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को एक-एक वेद का अर्थ सहित ज्ञान उनकी आत्माओं में प्रेरणा करके प्रदान किया था। यह चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद हैं। इनकी भाषा संस्कृत है। यह अत्यन्त उत्कृष्ट व दैवीय भाषा है। इस भाषा को मनुष्य कदापि नहीं बना सकते। इसका ईश्वर से मिलना सुनिश्चित एवं तर्कपूर्ण सिद्धान्त है। हम कल्पना कर सकते हैं कि आदि मनुष्यों को यदि परमात्मा ज्ञान न देता तो आदि मनुष्य मूक, बधिर, ज्ञान व भाषा से हीन तथा पशुओं के समान होते। सभी पशुओं एवं मनुष्येतर प्राणियों के पास अपने जीवन का निर्वाह करने के लिये आवश्यक स्वाभाविक ज्ञान होता है परन्तु मनुष्य के बच्चे में वह ज्ञान नहीं होता। किसी पशु को, चाहे राजस्थान की भूमि जहां जल उपलब्ध नहीं होता, पानी में डाल दिया जाये तो वह तैरने लगता है परन्तु समुद्र या किसी नदी के किनारे उत्पन्न मनुष्य का बच्चा पानी में डालने पर तैरता नहीं अपितु डूब जाता है। मनुष्य के बच्चों को तैरने का स्वाभाविक ज्ञान नहीं है। मनुष्य के बच्चे को सब बातें माता-पिता व गुरुजनों को सिखानी पड़ती हैं जबकि पशु व पक्षी जन्म के कुछ ही दिनों में इस योग्य हो जाते हैं कि वह जलना-फिरना व उड़ना सीख जाते हैं और अपने भोजन को प्राप्त करने व खाद्य व अखाद्य पदार्थों का ज्ञान भी उन्हें ईश्वर उनके स्वभाव में ही प्रदान करता है। उन्हें किसी स्कूल व पाठशाला में किसी आचार्य के पास ज्ञान प्राप्ति व कुछ सीखने के लिये जाने की आवश्यकता नहीं होती।
भाषा के बारे में हम विचार करते हैं कि यदि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने मनुष्यों को युवा उत्पन्न किया और उन्हें भाषा व ज्ञान नहीं दिया तो क्या वह स्वमेव कोई भाषा बना सकते थे? परमात्मा से यदि आदि मनुष्यों को भाषा का ज्ञान नहीं मिलता तो इसका अर्थ हुआ कि आदि मनुष्यों को किसी भी भाषा का किंचित ज्ञान नहीं था। जिस व्यक्ति को किसी अक्षर व शब्द का ज्ञान नहीं है, क्या वह भाषा का निर्माण कर सकता है? विचार, चिन्तन व विश्लेषण करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ऐसा मनुष्य जिसे किसी अक्षर व शब्द का ज्ञान नहीं है वह न तो अक्षरों का निर्धारण कर सकता है और न ही बिना अक्षरों के ज्ञान के शब्दोच्चार कर शब्द की रचना व उनके अर्थ व भावों को निश्चित कर सकता है। वेद जैसी भाषा तो वह तीन कालों में कभी नहीं बना सकता। आज भी वेदों की भाषा को जानना, सीखना व उसका व्यवहार करना आसान काम नहीं है। यह तब है कि जब हम पहले से ही कई भाषाओं के विषय में जानते हैं। अतः सृष्टि के आरम्भ काल में आदि मनुष्यों द्वारा भाषा की उत्पत्ति व रचना सम्भव कोटि में नहीं आती। भाषा व ज्ञान ईश्वर से ही मिलता है जैसे की ईश्वर से हमें यह सृष्टि, इसके समस्त पदार्थ व मनुष्य जन्म मिला है। चारों वेदों व इनकी भाषा की परीक्षा करने पर वेद ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होता है और वेदों की भाषा संस्कृत ईश्वरीय भाषा सिद्ध होती है। अपने मत की न्यूनताओं व हित-अहित के कारण कोई मतावलम्बी इस सिद्धान्त को भले ही न मानें परन्तु यह सिद्धान्त सत्य सिद्धान्त है। वेदों की परीक्षा करने पर यह ज्ञात होता है कि आदि काल में प्राप्त हुए वेद ज्ञान में सभी बातें व नियम इस संसार में घट रहे थे, आज भी घट रहे हैं व जो कर्तव्य वेदों में बातें गये हैं वह मानवता पर आधारित व मनुष्यों सुख प्रदान करने वाले तथा उत्कृष्ट सिद्धान्त हैं। सत्य को स्वीकार करना और असत्य का त्याग करना मनुष्यों का परम कर्तव्य है। जो मनुष्य अपने हित-अहित के अनुसार सत्य को स्वीकार नहीं करते, ऐसे मनुष्यों व पशुओं में अधिक अन्तर नहीं कहा जा सकता। ऐसे व्यक्ति को विद्वानों ने पशुओं का बड़ा भाई कहा है।
यह जान लेने पर की वेद ईश्वरीय ज्ञान है तथा वेदों की भाषा संस्कृत ईश्वरीय भाषा है, हमें इनके अध्ययन व प्रचार प्रसार पर ध्यान देना चाहिये। यह मनुष्य का कर्तव्य व धर्म दोनों है। ईश्वर ने जो ज्ञान हमारे पूर्वज चार ऋषियों को दिया था उन्होंने उसे सुरक्षित रखते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया है। हमारा भी कर्तव्य है कि हम भी उस ज्ञान को विलुप्त न होने दें अपितु उसकी रक्षा करते हुए उसे स्वयं सीखे और अपनी भावी सन्ततियों को प्रदान करें। यदि हम ऐसा करते हैं तो हमारा यह जीवन व परजन्म भी सुखों से युक्त व दुःखों से रहित होगा। वेद ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान है और वेद भाषा ईश्वरीय भाषा है। यह दोनों सृष्टि के आरम्भ में हमारे पूर्वज ऋषियों को सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर से अर्थ सहित प्राप्त हुए थे। उन्हीं से परम्परा आरम्भ होकर यह हमें प्राप्त हुए हैं। हमारा भी कर्तव्य है कि हम इस महनीय महान परम्परा को सुरक्षित रखते हुए आगे बढ़ायें जिससे आने वाली भावी पीढ़ियां लाभान्वित हो सकें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य

Wednesday, 14 November 2018

ईश्वर हमें मृत्यु से हटाकर अमृत वा मोक्ष की ओर ले चले

संसार भौतिक प्रगति करते हुए प्रतिदिन नई-नई खोजें कर रहा है और मनुष्य जीवन को सुखी व सुविधाओं से युक्त कर दिन प्रतिदिन नये-नये उपकरणों का निर्माण कर रहा है। संसार में अध्यात्मवाद और भौतिक वाद पर दृष्टि डालें तो पाते हैं कि संसार में अध्यात्मिकता न के बराबर है। सर्वत्र भौतिकवाद ही दृष्टिगोचर होता है। भारत में अनेक मत-मतान्तर व उनके मठ-मन्दिर व पूजास्थल हैं परन्तु अपवाद को छोड़कर कहीं सच्चे अध्यात्म जैसा कि वेद व उपनषिद आदि प्राचीन ग्रन्थों में प्रतिपादित है, उसके दर्शन न के बराबर ही होते हैं। इसका मुख्य कारण सच्चे अध्यात्मवादी वैदिक धर्मी आर्यसमाजियों का संगठित न होना व प्रचार में शिथिलता ही प्रतीत होती है। हमारे अनेक विद्वान ऐसे मिल सकते हैं कि जो मंच पर बैठ कर आध्यात्मिकता पर प्रभावशाली प्रवचन करते हैं परन्तु जब उनके जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो उनके मन, वचन और कर्मों में अन्तर पाते हैं। आध्यात्मिकता का विश्व में संगठित, आशानुकूल व प्रभावशाली प्रचार न होना ही कारण हैं भौतिकवाद व अनैतिक कार्यों की वृद्धि। इतिहास में जायें तो हम ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, आचार्य डॉ. रामनाथ वेदालंकार आदि सभी को मन, वचन व कर्म से एक देखते हैं। यही कारण था कि इनके सम्पर्क में जो भी व्यक्ति आता था वह प्रभावित होता था। आज तो हमारे ऐसे भी विद्वान है जो स्वयं अपने लिये सत्संग व कथा आदि का कार्यक्रम आयोजित कराते हैं और फिर दक्षिणा को लेकर बहस व वितण्डा करते हैं। ऐसे में वेदों का प्रचार आगे कैसे बढ़ सकता है?
बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28 में ‘ओ३म् असतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमयेति।’ वचन कहे गये हैं। इनका अर्थ अत्यन्त सरल व सुबोध है। हिन्दी पढ़े हुए प्रायः सभी व्यक्ति इन वचनों से परिचित हैं। इन वचनों में कहा गया है कि हम असत्य का त्याग कर सत्य मार्ग पर चलें। अन्धकार को छोड़कर प्रकाश के मार्ग का गमन करें। तीसरी प्रमुख बात यह कही है कि हम मृत्यु को प्राप्त न होकर अमृत को प्राप्त करने वाले हों। यह शिक्षायें भौतिकवाद की प्रवृत्ति से मेल नहीं खाती। भौतिकवादी सत्य व असत्य का विचार न कर अपने सुख व सुविधाओं की ओर अधिक ध्यान देता है। इसका परिणाम यह होता है वह युवावस्था में क्षणिक व कुछ दिनों व महीनों के लिये सुख सुविधाओं को तो प्राप्त कर लेता है परन्तु उसकी वृद्धावस्था में उसकी भोग करने की क्षमता घट जाती है जिसका उसे पश्चात होता है। वह मृत्यु के विषय, इसके कारण व निवारण, का विचार नहीं करता। ऐसा करना उसको बुरा लगता है। इसी बीच मृत्यु आ जाती है और उसका आत्मा शरीर से निकलकर ईश्वर की व्यवस्था में अपने इस जन्म के कर्मों का फल भोगने के लिये परजन्म को प्राप्त होकर कर्मानुसार सुख व दुःख पाता है। बृहदारण्यकोपनिषद् के ऋषि मनुष्य को आगाह करते हैं कि असत्य को छोड़ना है सत्य को धारण करना है। इसका लाभ जीवन में भी मिलता है और मृत्यु व उसके बाद अमृत व मोक्ष के रूप में भी मिलता है।
संसार में हम आध्यात्मवादियों को देखते हैं कि जो कर्मफल सिद्धान्त का वाणी से तो उल्लेख करते हैं परन्तु उनके व्यवहार में यह बहुत कम ही दृष्टिगोचर होता है। आर्यसमाज को कर्मफल सिद्धान्त पर शोध कर इसके विभिन्न पहलुओं को लघु व वृहद् ग्रन्थों के द्वारा समाज के सम्मुख प्रस्तुत करना था। वेदों में कहां कहां कर्म फल सिद्धान्त का उल्लेख हुआ है, वहां मन्त्रों में कर्म-फल के विषय में क्या कहा है, इसका संग्रह विवेचनापूर्वक उपलब्ध कराया जाना था। हमें प्रतीत होता है कि आर्यसमाज में ईश्वर व उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना आदि पर तो विस्तृत ग्रन्थ उपलब्ध हैं परन्तु कर्म-फल सिद्वान्त पर पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी, पं. विशुद्धानन्द शास्त्री व कुछ अन्य विद्वानों के बहुत कम ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। दर्शन ग्रन्थों में जन्म का कारण कर्म को बताया गया है। यदि ईश्वर व जीव अनादि न होते और जीव के पूर्वजन्मों के कर्म न होते तो ईश्वर इस सृष्टि को कदापि न बनाता। ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है तो उसका एकमात्र कारण है कि उसे जीवों के पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार सुख व दुःख प्रदान करने हैं। हम इस जन्म में मनुष्य बने और हमें माता-पिता-परिवार व एक सुख व दुःख का वातावरण मिला। इसका कारण अन्य कुछ नहीं अपितु हमारे पूर्वजन्म के कर्म ही हैं। इसी प्रकार जो जीवात्मा जिस योनि व जिस प्रकार के सुख व दुःख की अवस्था में है, उसका कारण उसके पूर्वजन्म के कर्म ही हैं। यदि इस सिद्धान्त को संसार के विद्वानों से स्वीकार करा लिया जाता तो यह संसार सत्य मार्ग ‘असतो मा सद् गमय’ पर आ सकता था। हम व हमारे सभी दिग्गज विद्वान इस सिद्धान्त को मानते तो हैं परन्तु इसे वह अन्य विद्वानों व मताचार्यों से स्वीकार नहीं करा पाये। यह भी सत्य है कि कोई मताचार्य इन सत्य सिद्धान्तों को समझना ही नहीं चाहता। वैज्ञानिकों जैसी जिज्ञासु प्रवृत्ति मताचार्यों में देखने को नहीं मिलती। सत्य को अपनाने से यदि स्वार्थों की हानि होती हो तो उसे कोई स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। यह बात अधिकांश रूप में देखने को मिलती है। ऐसे ही अन्य सिद्धान्तों की भी स्थिति भी है। ईश्वर व आत्मा का सत्यस्वरूप, वेद, उपनिषद एवं दर्शन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है परन्तु हम इसे आज तक किसी विपक्षी मत व विद्वान से स्वीकार नहीं करा पायें। हम अनुभव करते हैं कि हमें भविष्य में बड़े-बड़े सम्मेलन व समारोह न करके विद्वानों की गोष्ठियां इस बात के लिये आयोजित करनी चाहियें कि आर्यसमाज अपने सत्य सिद्धान्तों को विपक्षी मताचार्यों व विद्वानों से कैसे स्वीकार करा सकता है? इसका समाधान यदि विद्वान दे सकें, तो हमें लगता है कि यह मानव जाति सहित आर्यसमाज की बहुत बड़ी सेवा होगी।
उपनिषद के उपर्युक्त वचनों में कहा गया है कि हम अन्धकार से प्रकाश की ओर चलें। अन्धकार में तो कोई भी नहीं चलता। विज्ञान ने आज विद्युत का आविष्कार कर नाना प्रकार के प्रकाश उत्पन्न करने वाले बल्बो व उपकरणों का आविष्कार किया है। आजकल लेड लाइट व बल्बो का युग है जो बहुत कम विद्युत की खपत कर तीव्र शुभ्र प्रकाश देते हैं। उपनिषद के वचनों में इस प्रकाश की बात न होकर अविद्या व अज्ञान को दूर करने की बात की गई है। अविद्या व अज्ञान के अन्धकार को हम विद्या प्राप्त करके ही दूर कर सकते हैं। अविद्या दूर करने का सरल उपाय है कि हम ऋषि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का श्रद्धापूर्वक अध्ययन करें। ऋषि ने इन ग्रन्थों में एक वैज्ञानिक की भाति वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण, गीता आदि ग्रन्थों के तर्कपूर्ण प्रमाण देकर मनुष्य जीवन के लिये उपयोगी सभी विषयों पर अविद्या से रहित विद्यायुक्त बातें प्रकाशित की हैं। इनका अध्ययन कर व इसके बाद अन्य सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर हम अपनी अधिकांश अविद्या को हटा सकते हैं। हम यह भी बता दें कि यजुर्वेद में अविद्या का अर्थ कर्मोपासना बताकर विद्या से अमृत व मोक्ष प्राप्ति की बात कही है। निश्चय ही यदि हम इन ग्रन्थों को पढ़कर इनके अनुरूप आचरण व व्यवहार करेंगे तो हमें इनमें कहे गये लाभ व फल अवश्य प्राप्त हो सकते हैं।
जो मनुष्य जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है। उपनिषद के तीसरे व अन्तिम वचनों में यह बताया है कि हम मृत्यु पर विजय प्राप्त करें और पुर्नजन्म न लेकर अमृत व मोक्ष की प्राप्ति करें। मृत्यु पर विजय प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना ही जीवात्मा का लक्ष्य है। इसीलिये हमें परमात्मा से मनुष्य जन्म मिला है। हमें जीवन के आरम्भ के वर्षों में वेद विद्या को प्राप्त करना है और उसके अनुरूप आचरण करना है। विद्यानुरूप आचरण करने से ही हम बन्धन व दुःख के कारण पाप कर्मों से छूट कर ईश्वरोपासना आदि कर्मों से मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। इस सिद्धान्त को सृष्टि के आरम्भ्स से महर्षि दयानन्द पर्यन्त सभी वैदिक ऋषि, मुनि, आचार्य और विद्वान मानते आये हैं। यह सिद्धान्त शत-प्रतिशत सत्य एवं तर्कसंगत है। हम इसको समझेंगे और प्रचार करेंगे तो इससे हमें व अन्यों को लाभ होगा। हमारा व अन्यों का परजन्म सुधरेगा। महर्षि दयानन्द ने इन सिद्धान्तों को जानकर, इनकी परीक्षा कर और इन्हें सत्य पाने पर इन्हें अपने जीवन में धारण किया था और प्रचार भी किया था। इसी कारण हम और आर्यसमाज के सभी विद्वान व सदस्य इससे आज भी लाभान्वित हो रहे हैं। हम एक दृष्टि से और विचार करना चाहते हैं। जीवात्मा अनादि व अविनाशी है। जीवात्मा का अन्त न होने से यह
अनन्त है। यदि हम अपने पूर्वजन्मों की कुल काल व समयावधि पर विचार करें तो यह अनन्त वर्षों की होती है। इस मनुष्य जन्म में हम 50 से 100 वर्ष तक ही जीते हैं। अतीत व भविष्य की अवधि की तुलना में हमारा यह जीवन अत्यन्त न्यून व क्षणभंगुर ही कहा जा सकता है। अतः इस जन्म में हम कोई असत्य व पाप कर्म न करें जिससे हमें आगामी जन्म में पशु-पक्षी आदि नीच येनियों में जाकर दुःख भोगने पड़े। यह लिखते हुए दुःख होता है कि अधिकांश भौतिकवादी लोगों के कर्म तो ऐसे ही हैं कि वह अगले जन्म में शायद ही मनुष्य बनें। जो बीत गया सो बीत गया परन्तु जो वर्तमान व भविष्य है उसे तो हम सुधार ही सकते हैं। आप विचार करें और स्वयं निर्णय करें। यदि हम असत्य से दूर सत्य मार्ग का अवलम्बन करेंगे, अन्धकार का त्याग कर प्रकाश व विद्या के मार्ग को अपनायेंगे और जन्म व मरण के कारण पाप कर्मों का त्याग कर जीवनमुक्त होकर पुण्य कर्म ही करेंगे तो निश्चय ही हमारा मोक्ष हो सकता है। ईश्वर सबको सत्य मार्ग और सत्याचरण में प्रवृत्त करे। इति ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य

पंजाब में शीर्ष आर्य नेताओं एवं विद्वानों के प्रेरक एवं आदर्श लाला साईंदास

स्वामी श्रद्धानन्द जी (पूर्व आश्रम का नाम महात्मा मुंशीराम व इससे पूर्व मुंशीराम जी) की पं. सत्यदेव विद्यालंकार कृत जीवनी की स्वाध्याय करते हुए इसमें आज पं. गुरुदत्त विद्यार्थी एवं लाला सांईदास जी की मृत्यु का उल्लेख पढ़ा तो मन में आया कि इस प्रकरण को हम लेख के माध्यम से प्रस्तुत करे। लाला सांईदास जी की मृत्यु 13 जून सन् 1890 को लाहौर में हुई थी। लाला सांईदास जी से पूर्व महात्मा मुंशीराम जी के अनन्य मित्र एवं सहयोगी पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी का भी दिनांक 19 मार्च सन् 1890 को देहावसान हुआ था। इससे कुछ ही माह पूर्व महात्मा जी के बड़े साले श्री बालकराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी की धर्मपत्नी माता शिवदेवी जी के बड़े भाई) की जालन्धर में फैले हैजे से दिनांक 14-8-1889 को आकस्मिक मृत्यु हुई थी। बालक राम जी माता शिवदेवी जी से बहुत स्नेह करते थे। शिवदेवी जी का भी अपने बड़े भ्राता से अत्यधिक प्रेम था। इस घटना से शिवदेवी जी बहुत व्यथित थीं, अतः महात्मा मुंशी राम जी अपने पूरे परिवार को हरिद्वार घूमाने लाये थे। पुस्तक में लाला सांईदास जी की मृत्यु से सम्बन्धित पूरा विवरण निम्नानुसार हैः
‘‘पंडित गुरुदत्त जी के इस वियोग की वेदना ने बालकराम जी के देहान्त से हुए घाव पर नमक छिड़कने का काम किया था, तो सांईदास जी के देहावसान ने मानो उस पर लाल मिर्च छिड़क दी। 30 ज्येष्ठ सम्वत् 1947 (13 जून 1890 ई.) को वे भी इस संसार से चल दिये। सांईदास जी के पास न तो कोई बहुत धन-सम्पत्ति थी और न यूनिवर्सिटी की कोई डिग्री ही। फिर भी आर्यसमाज के वे माने हुए नेता थे। न केवल लाहौर, किन्तु समस्त पंजाब के आर्य पुरुष उनके अनुभव से लाभ उठाया करते थे। उनमें सादगी, सच्चरित्रता और मिलनसार स्वभाव आदि ऐसे सद्गुण थे कि उनके कारण वे दूसरों को अपनी ओर सहसा आकर्षित कर लेते थे। आर्यसमाज में उनकी निष्ठा बहुत गहरी थी। हंसराज जी और लाजपतराय जी सरीखों को घेर कर ब्रह्मसमाज से आर्यसमाज में लाने तथा पंडित गुरुदत्त जी और मुंशीराम जी सरीखों को नास्तिकता के गहरे अन्धकारमय गढ़ में से उभार कर आस्तिकता की चोटी पर पहुंचाने वाले सांईदास जी ही थे। ऐसे पथ-प्रदर्शक का उठ जाना भी मुंशीराम जी के लिए कुछ कम दुःखजनक नही था। ऐसे साथियों को खोकर साधारण मनुष्य का हृदय टूट जाता है, किन्तु मुंशी राम जी ने इस समय असीम साहस का परिचय दिया। आर्यसमाज के सब काम की जिम्मेवारी को उन्होंने अपने ऊपर उठा लिया और पूरे उत्साह के साथ उसको निभाया। मुंशीराम जी की इस कर्तव्यपरायणता का ही यह स्वाभाविक परिणाम हुआ कि आर्यवमाज में जिस गृह-कलह का सूत्रपात लाहौर में हुआ था, उसमें जालन्धर के आर्य-पुरुषों का मुख्य हाथ रहा और जिसको महात्मा-पार्टी या घास-पार्टी कहा गया, उस प्रमुख दल के नेतृत्व की बागडोर सहज में ही मुंशीराम जी के हाथों में ऐसे चली आई, जैसे ही पंडित गुरुदत्त जी के बाद नेता के अभाव की पूर्ति करने के लिए ही उनको आर्यसमाज में प्रवेश करने के लिए कोई दैवी प्रेरणा हुई थी।”
लाला सांईदास जी का आर्यसमाज के इतिहास में अविस्मरणीय योगदान है। वर्तमान पीढ़ी उनके विषय में बहुत कम या प्रायः नहीं जानती। इसका एक कारण आर्य साहित्य में उनके जीवन चरित्र आदि का उपलब्ध न होना भी है। हमें लगा कि उनके जीवन की कुछ चर्चा भी की जाये। अतः हम डॉ. भवानीलाल भारतीय की पुस्तक ‘आर्य लेखक कोष’ से उनका परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं।
डॉ. भवानीलाल भारतीय जी लिखते हैं कि पंजाब में आर्यसमाज के प्रारम्भिक कर्णधारों में लाला सांईदास का नाम सर्वप्रमुख है। उनका जन्म जालंधर जिले की फिल्लौर तहसील के लस्साड़ा ग्राम में सन् 1841 में हुआ। मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे सरकारी सेवा में प्रविष्ट हुए। प्रारम्भ में सांईदास ब्रह्मसमाज में प्रविष्ट हुए किन्तु जब इन्होंने अनुभव किया कि इस संस्था के द्वारा वे अपनी देश सेवा और समाज सुधार की आकांक्षाओं को पूरा नही ंकर सकते तो उन्होंने आर्यसमाज लाहौर की स्थापना के समय ही उसकी सदस्यता स्वीकार कर ली। स्वामी दयानन्द की विचारधारा ने सांईदास को प्रभावित किया था। वे आर्यसमाज लाहौर के प्रथम मंत्री थे। पंजाब की आर्य प्रतिनिधि सभा की स्थापना के साथ ही वे इस संस्था के प्रधान निर्वाचित हुए और आजीवन इस पर रहे।
लाला सांईदास में स्वदेश हित का भाव अत्यन्त प्रबल था। यद्यपि वे पंजाब सरकार की सेवा में ट्रान्सलेटर के पद से उन्नति कर 1890 में प्रान्त के गवर्नर के कार्यालय में मीर मुन्शी के पद तक पहुंच गये थे किन्तु देश और हिन्दू समाज को उन्नत बनाने के लिये उनके जैसी धुन उस युग के सरकारी कर्मचारियों में सर्वथा दुलभ ही थी। लालाजी की आर्यसमाज के प्रति अनन्य निष्ठा थी। कहते हैं कि महीने के पहले दिन वेतन मिलते ही वे सीधे अपने दफ्तर से आर्यसमाज मंदिर जाते और अपने वेतन का 10 प्रतिशत (उन दिनों उन्हें 130 रुपये वेतन मिलता था) आर्यसमाज के मासिक चंदे के रूप में जमा कराने के पश्चात् ही घर लौटते। यह थी आर्यसमाज के प्रति सांईदास की आस्था। नव युवक वर्ग को आर्यसमाज में प्रविष्ट होते देखकर उन्हें विशेष प्रसन्नता अनुभव होती थी। हंसराज, लाजपतराय, गुरुदत्त तथा मुन्शीराम जैसे नौजवानों को आर्यसमाज का कार्य करते देख कर सांईदास का रोम रोम प्रफुल्लित होता था। जून 1890 में लाला सांईदास का देहान्त हो गया। 12 फरवरी 1881 को जब कलकत्ता में पौराणिक पण्डितों ने आर्य सन्मार्ग सं
दर्शिनी सभा के नाम से एक बैठक बुला कर स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तों के प्रतिकूल व्यवस्थायें दीं, तो उसके उत्तर में लाला सांईदास ने ‘रसाला एक आर्य’ पुस्तक उर्दू में लिखी तथा पौराणिक विद्वानों की धारणाओं का तीव्र प्रतिवाद किया। यह पुस्तक ही लाला सांईदास की एक मात्र साहित्यिक कृति कही जा सकती है।
यहां पर डॉ. भारतीय जी लिखित विवरण समाप्त होता है। हम आशा करते हैं कि पाठकों के लिये उपर्युक्त जानकारी लाभप्रद होगी। हमारा यह अनुमान है कि जब लाहौर में महर्षि दयानन्द जी ने आर्यसमाज की स्थापना की थी और लाला सांईदास जी उसके प्रथम मंत्री बने थे, तो उस अवसर, उससे पूर्व व बाद में भी लाला सांईदास जी को ऋषि दयानन्द जी के दर्शन हुए होंगे और उन्होंने उनके उपदेश भी श्रवण किये होंगे। लाला सांईदास जी ने ‘रसाला एक आर्य’ जो उर्दू पुस्तक लिखी है वह उनके आर्यसमाज के सिद्धान्तों के गहन ज्ञान एवं निष्ठा का उदाहरण व प्रमाण है। यदि वह कुछ ग्रन्थ और लिख देते तो इससे लोगों को अधिक लाभ होता। ग्रन्थ न लिखने का एक कारण यह भी रहा हो सकता है कि वह सरकारी नौकरी में थे जहां इस तरह के कार्य उनकी नौकरी को हानि पहुंचा सकते थे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य

स्वाध्याय करने से ज्ञान प्राप्ति सहित आत्मिक व सामाजिक उन्नति”

मनुष्य की आत्मा अनादि, नित्य, अविनाशी एवं अमर है। एकदेशी होने से यह अल्पज्ञ है। हमें नहीं पता कि पूर्वजन्म में हम मनुष्य ही थे या किसी अन्य योनि में थे। इस जन्म में हमें पूर्वजन्म की किसी बात की याद नहीं है। मनुष्य का स्वभाव पुरानी बातों को भूलने का है। दो जन्मों के बीच में एक मृत्यु आती है जिससे हमारा पूर्वजन्म का शरीर नष्ट हो जाता है। अतः पूर्वजन्म व पुरानी स्मृतियों के विस्मृत होने के अनेक कारण हैं। बचपन में हमें माता-पिता ने भाषा सिखाई और बोलना सिखाया। आज हम जो भी जानते हैं वह सब हमने इसी जन्म में सीखा है। माता-पिता के अतिरिक्त हमारे गुरुजन व पुस्तकें हमारे ज्ञान का साधन हैं। जो मनुष्य जितना अधिक ज्ञानवान होता है वह समाज में उतना ही आदर सत्कार पाता है। हमें जो ज्ञान है वह हमारी आत्मा और हमारे मन, मस्तिष्क और बुद्धि की क्षमता तथा हमारी आवश्यकताओं से काफी कम है। ज्ञान की कमी से हमें अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। यदि हम अपने जीवन के एक-एक क्षण का सदुपयोग करें तो हम अपने जीवन को काफी अधिक सुधार सकते व उसे ज्ञान व कर्म की दृष्टि अधिक उपयोगी एवं महनीय बना सकते हैं। हम प्रयत्न करें तो एक अतिरिक्त भाषा भी सीख सकते हैं और पुस्तकों के द्वारा धर्म, संस्कृति, अध्यात्म, इतिहास सहित ज्ञान व विज्ञान को भी कहीं अधिक जान सकते हैं। यह ज्ञान हमारे इस जन्म सहित पुनर्जन्म वा परजन्म में भी उचोगी होता है। अतः हमें स्वाध्याय के महत्व पर विचार करना चाहिये और अपने जीवन को स्वाध्याय से जोड़कर अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर जीवन को अधिक उपयोगी एवं सफल बनाना चाहिये।
संसार में सबसे पुरानी पुस्तक वेद हैं। वेद चार हैं जिनके नाम है ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेद ज्ञान व विज्ञान को कहते हैं। चार वेद ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तकें है जो सर्वव्यापक ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को प्रदान किये थे। वेद से हमें ईश्वर के सत्यस्वरूप, उसकी उपासना, आत्मा के स्वरूप, मनुष्य के कर्तव्य व अकर्तव्यों सहित अनेक विद्याओं का ज्ञान होता है। यदि ईश्वर व आत्मा की बात करें तो आज का मनुष्य ईश्वर व जीवात्मा के सत्यज्ञान से प्रायः अपरिचित है। उसे अपने कर्तव्यों का भी ज्ञान नहीं है
। भोजन कैसा हो जिससे शरीर निरोग रहे और शारीरिक बल सहित आयु की वृद्धि हो, इससे भी अधिकांश लोग अपरिचित हैं। मनुष्यों में अनेक प्रकार की शंकायें होती हैं जिनके सत्य व सन्तोषजनक उत्तर उसे नहीं मिलते। अतः उसे ऐसे ग्रन्थ को प्राप्त कर उसका अध्ययन करना चाहिये जिससे उसकी सभी शंकाओं का निराकरण हो सके। ऐसी एक ही प्रमुख पुस्तक है जिसका नाम ‘सत्यार्थप्रकाश’ है। इस ग्रन्थ के लेखक चार वेदों एवं सम्पूर्ण वैदिक साहित्य के अपूर्व पूर्ण विद्वान थे। वह सच्चे योगी भी थे और उन्होंने ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार भी किया था। योग की अन्तिम सीढ़ी समाधि होती है जिसमें योगी ईश्वर साक्षात्कार करता है। समाधि में योगी को संसार विषयक सभी प्रकार का सत्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है। वह जो जानना चाहता वह ईश्वर की कृपा से उसे ज्ञात होता है। यदि वह अपने पूर्वजन्मों के बारे भी जानना चाहे तो वह भी जान सकता है। इसके आतिरिक्त ईश्वर व जीवात्मा सहित सृष्टि के अनेक रहस्यों को जानने में वह सफल होता है।
उपर्युक्त सभी विशेषताओं से ऋषि दयानन्द जी युक्त थे। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में मनुष्य जीवन में उठने वाली प्रायः सभी शंकाओं के उत्तर युक्ति, तर्क व प्रमाणों के साथ दिये हैं। कई ऐसे तथ्य भी सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से प्राप्त होते हैं जिन्हें वर्तमान के वैज्ञानिक भी जानते नहीं हैं। ईश्वर है, उसी ने सृष्टि की उत्पत्ति जीवों के भोग और अपवर्ग के लिये की है। ईश्वर में सृष्टि उत्पन्न करने की अनादि व नित्य सामर्थ्य है। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। जीवात्मा का लक्ष्य समाधि को प्राप्त होकर ईश्वर का साक्षात्कार करने सहित मोक्ष को प्राप्त करना है। मोक्ष आनन्द की अधिकतम वा पूर्ण अवस्था को कहते हैं। मोक्ष प्राप्त कर जीवात्मा 31 नील वर्षों के लिये जन्म-मरण के बन्धों वा दुःखों से छूट जाता है। ऐसी अनेक बातें हैं जिनका सत्यार्थप्रकाश में युक्ति व तर्क से समाधान किया गया है। स्वामी दयानन्द जी का ऋग्वेद का आंशिक संस्कृत-हिन्दी भाष्य, यजुर्वेद के संस्कृत-हिन्दी भाष्य सहित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि तथा आर्याभिविनय आदि ग्रन्थ पठनीय हैं। इनके अध्ययन से मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि होती है। इसके साथ ही सभी मनुष्यों को दर्शन एवं उपनिषदों सहित मनुस्मृति, रामायण एवं महाभारत का भी अध्ययन करना चाहिये। इस अध्ययन से मनुष्य ज्ञान की ऊंचाईयां को प्राप्त करता है जिससे उसका व्यक्तित्व उन्नत होता है। स्वाध्याय से हमें न केवल अध्यात्म व अन्य विषयों का यथार्थ ज्ञान अपितु आर्यों के सत्य इतिहास का ज्ञान भी होता है। भारत देश के सभी नागरिक वा देशवासी वेद के ऋषियों, विद्वानों व आर्यों की सन्तानें हैं। यह बात प्रायः सभी भूले हुए हैं। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से ऐसे सभी तथ्यों का ज्ञान हो जाता है।
मनुष्य जीवन के कर्तव्यों में ईश्वर व माता-पिता का कृतज्ञ होना व उनकी भक्ति व आज्ञा पालन करना मुख्य कर्तव्य होता है। सृष्टि को स्वच्छ रखने व दुर्गन्ध का नाश कर अपने घरों की वायु को शुद्ध रखने के लिये प्रतिदिन घर में वायु-जल शोधक अग्निहोत्र यज्ञ करना चाहिये। यह वैदिक संस्कृति की प्रमुख देन है और संस्कृति का अंग भी है। इससे वायु की शुद्धि होकर रोगों से रक्षा, रोगों का शमन, स्वास्थ्य में सुधार व रोग निवृत्ति आदि अनेक लाभ होते हैं। ईश्वर का सहाय भी मिलता है। उपासना की विधि का ज्ञान स्वाध्याय से होता है जिसको करके मनुष्य मोक्ष के मार्ग पर बढ़ता है जिससे उसके परजन्म में उन्नति व मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
स्वाध्याय के विषय में शास्त्रों में बताया गया है कि स्वर्ग व सुख चाहने वालों को यज्ञ करना चाहिये। यज्ञ से स्वर्ग वा सुख की प्राप्ति होती है। एक कथा ऐसी भी आती है कि जिसमें कहा गया है कि स्वाध्याय से वह लाभ होता है कि जो लाभ पूरी धरती को स्वर्ण व रत्नों आदि से ढक कर दान कर देने वालों को भी प्राप्त नहीं होता। स्वाध्याय से मनुष्य इष्ट देवता से जुड़ जाता है। स्वाध्याय से मनुष्य के सभी भ्रम व आशंकायें दूर हो जाती हैं। ईश्वर का सत्यस्वरूप ज्ञात हो जाता है। हम व्यस्नों, मांसाहार, पापाचार, दूसरों के शोषण, अन्याय व अत्याचारों को करने से बच जाते हैं। स्वाध्यायशील लोगों को समाज में सम्मानित स्थान व प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।
वेदों के बाद स्वाध्याय का प्रमुख ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ है। इसमें मनुष्य जीवन विषयक सभी प्रकार का ज्ञान उपलब्ध है। इसके कुल पृष्ठों की संख्या लगभग 450 है। एक घण्टे में लगभग 15 पृष्ठ पढ़े जा सकते हैं। यदि कोई मनुष्य प्रतिदिन प्रातः व सायं कुल दो घंटे भी सत्यार्थप्रकाश पढ़े तो 15 दिनों में पूरा सत्यार्थप्रकाश पढ़ सकते हैं। आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने 18 बार सत्यार्थप्रकाश पढ़ा था। उनकी कितनी आत्मिक उन्नति हुई, यह हमारे सामने हैं। 26 वर्ष से कम आयु में उनकी मृत्यु हो गई थी परन्तु वेद धर्म प्रचार व उन्नति के लिये उन्होंने अपने अल्प जीवन अवधि में जो कार्य किया उसके कारण वह अमर हैं और हमेशा अमर रहेंगे। उनके विषय में यह कहा जाता है कि वह जिस लाइब्रेरी में चले जाते थे उसे पूरी पढ़कर अथवा उसकी सभी प्रमुख पुस्तकें पढ़कर निकलते थे। उनकी लिखी एक पुस्तक ‘‘वैदिक संज्ञा विज्ञान” अथवा “Terminology of Vedas” आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में भी पढ़ाई जाती थी। सभी विदेशी वेद विषयक विद्वानों की भूलों व गल्तियों को भी उन्होंने अपने लेखों व ग्रन्थों के माध्यम से प्रकाशित किया था। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी स्वाध्याय की देन थे। हम सभी ऋषियों सहित ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम आदि को भी स्वाध्याय की देन समझते हैं।
स्वाध्याय के विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता है। स्वाध्याय से मनुष्य का सर्वांगीण विकास होता है। उसका लोक व परलोक दोनों सुधरता है। आत्मिक व बौद्धिक उन्नति होती है। देश व समाज में उसे प्रतिष्ठा मिलती है। वह पापों सहित मत-मतान्तरों की मिथ्या व जीवन को हानि पहुंचानें वाली सभी बुराईयों से भी बच जाता है। यह सभी लाभ कोई कम महत्व के नहीं हैं। आज ही नित्य प्रति स्वाध्याय का व्रत लें और अपने जीवन को उपयोगी बनाते हुए मनुष्य जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के लिये साधना का आरम्भ करें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य

देश और समाज को अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले आदर्श महापुरुष ऋषिभक्त स्वामी श्रद्धानन्द”


महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में जिस प्राचीन वैदिक कालीन गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति का विवरण प्रस्तुत किया था उसे साकार रूप देने का स्वप्न उनके प्रमुख अन्यतम शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द जी (पूर्वनाम महात्मा मुंशीराम) ने लिया था। उन्होंने इसके लिये अपना सर्वस्व अर्पण किया। इतिहास में शायद ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। उन्होंने अपना पूरा जीवन, समस्त धन दौलत, भौतिक सम्पत्ति सहित अपने दोनों पुत्र भी गुरुकुलीय पद्धति को समर्पित किये थे। गुरुकुल को स्थापित करने के लिए स्वामी श्रद्धानन्द जी ने जो त्याग व बलिदान किया उसका उल्लेख उनके जीवनीकार पं. सत्यदेव विद्यालंकार जी ने अपनी पुस्तक स्वामी श्रद्धानन्दमें किया है। हम उसी विवरण को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।

गुरुकुल की स्थापना के सम्बन्ध में जो बोले सो कुण्डा खोलेकी कहावत महात्मा मुंशीराम जी पर अक्षरशः चरितार्थ होती है। आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द ने शिक्षा की जिस पुरातन आर्ष पद्धति को पुनर्जीवित करने पर अपने ग्रन्थों में जोर दिया है, इसके लिए महात्मा जी ने हृदय में कुछ ऐसी स्फूर्ति पैदा हुई कि उसके पीछे भिखारी बन गये। गुरुकुल की स्थापना का प्रस्ताव आपने ही आर्य जनता के सम्मुख उपस्थित किया था। उस प्रस्ताव को मूर्त रूप दने के लिए आप को ही गांव-गांव घूम कर गले में भिक्षा की झोली डाल कर चालीस हजार रुपया जमा करना पड़ा (आजकल के हिसाब से यह धनराशि लगभग 15 से 25 करोड़ के बीच हो सकती है -मनमोहन) और घर-बार त्याग कर स्वयं भी गुरुकुल में आकर बसेरा डालना पड़ा। उस के आचार्य और मुख्याधिष्ठाता होकर उसको पालने-पोसने और आदर्श शिक्षणालय बनाने का सब काम भी आप को ही करना पड़ा। हृदय के दो टुकड़े-दोनों पुत्र शुरू में ही गुरुकुल के अर्पण कर दिये गये थे। फलती-फूलती हुई वकालत रूपी हरा पौधा भी गुरुकुल के ही पीछे मुरझा गया था। पहिले ही वर्ष, सन् 1902 में आपने अपना सब पुस्तकालय गुरुकुल को भेंट किया। सम्वत् 1908 में लाहौर आर्यसमाज के तीसवें उत्सव पर सद्धर्म प्रचारक प्रेस भी, जिसकी कीमत आठ हजार से कम नही थी, गुरुकुल के चरणों पर चढ़ा दिया। तीस हजार से अधिक लगा कर खड़ी की गई जालन्धर की केवल एक कोठी बाकी थी। उसको भी सन् 1911 में गुरुकुल के दसवें वार्षिकोत्सव पर गुरुकुल पर न्यौछावर कर दिया। सभा ने उसको बीस हजार में बेच कर यह रकम गुरुकुल के स्थिर कोष में जमा की। यह सब उस हालत में किया गया था जबकि आपके सिर पर हजारों का ऋण था और गुरुकुल से निर्वाहार्थ भी आप कुछ नहीं लेते थे। कोठी दान करते हुए सभा के प्रधान के नाम लिखे एक पत्र में आपने लिखा था ‘‘मुझे इस समय 3600 रुपये ऋण देना है, वह मैं अपने लेख आदि की आय से चुका दूंगा। इस मकान से उस ऋण का कोई सम्बन्ध नहीं है।

इस पर भी छिद्रान्वेषी लोगों के ये आक्षेप थे कि आप अपने पुत्रों के लिए कुछ न छोड़ कर पीछे उन पर कर्ज का भार लाद जायेंगे। मुंशीराम जी ने वह सब ऋण उतार कर और सन्तान को गुरुकुल की सर्वोच्च शिक्षा से अलंकृत करके ऐसे सब लोगों के मुंह बन्द कर दिये थे। इस प्रकार तन, मन, धन सर्वस्व आपने गुरुकुल को अर्पण कर दिया। अध्यापकों एवं कर्मचारियों पर भी इसका इतना असर पड़ा कि प्रायः सबने अपने वेतन में कमी कराई और एक-एक मास का वेतन गुरुकुल को दान में दिया। अन्त में आप ने अपना स्वास्थ्य भी गुरुकुल के पीछे मिट्टी कर दिया। सन् 1908 में आप को लाहौर में हर्निया का आपरेशन तक कराना पड़ा। पर, वह सब कष्ट सदा के लिए ही बना रहा। पेटी बांधने पर भी वह कष्ट कभी-कभी उग्र रूप धारण कर लेता था। कई बार पांच-पांच, छः-छः मास के लिए डाक्टर बाधित करके आप को क्वेटा, कसौली आदि पहाड़ी स्थानों पर भेजते थे, पर आपको एक-दो महीने में ही गुरुकुल की चिन्ता वहां से वापिस लौटी लाती थी। गुरुकुल के लिए चन्दा इकट्ठा करने के लिए जो दौरे आपको करने पड़ते थे, उनसे स्वास्थ्य को बहुत धक्का लगता था। सन् 1910, 1911 और 1912 में गुरुकुल से विद्यार्थियों का शुल्क लेना बन्द कर लिया गया था। उन वर्षों में आपको बजट की पूर्ति के लिए जो कठोर परिश्रम करना पड़ा, उसका स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ा। सन् 1914 में आपने गुरुकुल के लिए 15 लाख रुपये की स्थिर निधि जमा करने के लिए कठिन परिश्रम शुरू किया ही था कि स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। मानो अपने स्वास्थ्य की आपने उस सर्वमेध यज्ञ में अन्तिम आहुति दी थी, जिसका अलौकिक अनुष्ठान आपने आपने अपने जीवन रूपी यज्ञकुण्ड में किया था। आपने अपने को गुरुकुल के साथ इस प्रकार तन्मय कर दिया था कि आप के व्यक्तित्व और गुरुकुल के अस्तित्व को एक-दूसरे से अलग करने वाली किसी स्पष्ट रेखा का अंकित करना संभव नहीं था। वैसे मुंशीराम जी के हृदय में इस सर्वमेध-यज्ञ के अनुष्ठान की भावना बहुत पहले ही पैदा हो चुकी थी।

सन् 1891 की डायरी के 5 पौष (12 जनवरी) के पृष्ठ मे लिखा हुआ है-‘‘मातृभूमि के पुनरुद्धार के लिए बडे़ तप-युक्त आत्मसमर्पण की आवश्यकता है। बार-रूम में वकील भाइयों के साथ इस पेशे से धर्माधर्म के विषय में बातचीत हुई। मैं बार-बार अपने आत्मा से प्रश्न कर रहा हूं कि वैदिक धर्म की सेवा का व्रत धारण किये हुए क्या मैं वकील रह सकता हूं? मार्ग क्या है? कौन बतलाएगा? अपने स्वामी परमपिता से ही कल्याण-मार्ग पूछना चाहिये। यह संशयात्मक स्थिति ठीक नहीं। अपने देश तथा धर्म की सेवा के लिए पूरा आत्म-समर्पण करना चाहिये। परन्तु परिवार भी एक बड़ी रुकावट है। संदिग्ध अवस्था में हूं। कुछ निश्चय शीघ्र होना चाहिए। कृष्ण भगवान् ने कहा--संशयात्मा विनश्यति। पिता, तुम ही पथ प्रदर्शक हो।यही नहीं, एक वर्ष पहिले सन् 1890 के 15 माघ की डायरी में भी लिखा हुआ है ‘‘गृहस्थ मुझे अन्तरात्मा की आवाज सुनने से रोकता है, नहीं तो बहुत काम हो सकता था। फिर भी जो कुछ कर सकता हूं, उसके लिए परमात्मा को धन्यवाद है।ऐसे उद्धरण और भी दिये जा सकते हैं और उनकी समर्थक कुछ घटनाए भी उद्धृत की जा सकती है, किन्तु इतने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि मुंशीराम जी गृहस्थ और वकालत दोनों के बन्धन काट कर देश और धर्म की वेदी पर पूरे आत्म-समर्पण अथवा सर्वमेध-यज्ञ के अनुष्ठान की तय्यारी बहुत पहिले से ही कर रहे थे। इसीलिए पतिव्रता पत्नी के असामयिक देहावसान के बाद पैंतीस-छत्तीस वर्ष की साधारण आयु, छोटे-छोटे बच्चों के लालन-पालन की विकट समस्या और मित्रों व सम्बन्धियों का सांसारिक प्रलोभनों से भरा हुआ अत्यन्त आग्रह होने पर भी मुंशीराम जी फिर से गृहस्थ में फंसने का विचार तक नहीं कर सकते थे।

निवृत्ति के मार्ग की ओर मुंह किये हुए महात्मा जी के लिए आत्म-समर्पण करने का अवसर उपस्थित होने पर फलती-फूलती वकालत भी रुकावट नहीं बन सकी। राजभवन की मोह-माया और ममता के सब बन्धन एक साथ तोड़ कर घोर तपस्या के लिए जंगल का रास्ता पकड़ने वाले बुद्ध के समान मुंशीराम जी ने भी वेद की इस वाणी को हृदयंगम करते हुए उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां धियो विप्रोऽजायतकी भावना से चण्डी पहाड़ की तराई में हरिद्वार में गंगा के उस पार विकट जंगलों का रास्ता पकड़ा। कहते हैं त्यागी दयानन्द ने भी सन् 1824 के कुम्भ के बाद सर्वत्यागी होकर केवल लंगोटी रख तपस्या को पूर्णता तक पहुंचाने के लिए इन्हीं जंगलों का रास्ता पकड़ा था। गुरुकुल की वह भूमि, मुंशीराम जी के सर्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान की यज्ञभूमि होने से, प्राचीन ऋषि-मुनियों की दण्डकारण्य की भूमि के समान ही आप के लिए तपोभूमि बन गई। उठती हुई आयु के वैभव-सम्पन्न होने के जीवन के सर्वश्रेष्ठ भाग को उस बीहड़ जंगल में गुरुकुल के रूप में पूर्ण स्वतन्त्र उपनिवेश बसाने में लगा देने के कारण उस भूमि को आपकी कर्मभूमि कहना चाहिए। गंगा की धारा के प्राकृतिक प्रकोप के प्रतिकूल एक नयी सृष्टि की रचना करने वाले महात्मा मुंशीराम जी ही उस भूमि के ब्रह्मा थे। उस भूमि का छोटे से छोटा परिवर्तन भी आपकी आंखों के सामने हुआ था। गुरुकुल की वाटिका में लगाये गये एक-एक पौधे और उसमें बखेरे गये एक-एक बीज को आपका आशीर्वाद प्राप्त था। उस भूमि में खड़े किये गये मकानों की नींव तक में भरी हुई एक-एक रोड़ी और उस रोड़ी पर जमाई गई एक-एक इंर्ट में आपके त्याग की भावना कुछ ऐसी समाई हुई थी, जैसे आपने अपने हाथों से ही उनको चुना हो। घूमने की सड़कें, खेलने के मैदान और आश्रम तथा विद्यालय के दालान, सारांश यह कि गुरुकुल की सबकी सब रचना आपके महान् व्यक्तित्व की जीती जागती निशानी थी। ब्रह्मचारी और कर्मचारी ही नहीं, उस भूमि के पशु, पक्षी, वनस्पति और जंगम सृष्टि तक में आपके सर्वस्व अर्पण की स्पष्ट छाया दीख पड़ती थी। मुंशीराम जी के लिए यह सर्वत्र-अर्पण अथवा सर्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान एक विस्तृत गृहस्थ का बोझ था। आपके सार्वजनिक जीवन के जिस भाग को इस जीवनी में वानप्रस्थ का नाम दिया जा रहा है, उसके लिए आप कहा करते थे-‘‘मैं अधिकतर गृहस्थ में फंस गया हूं। आपका यही विस्तृत गृहस्थ गुरुकुल कांगड़ी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इन पंक्तियों को पढ़कर हमें स्वामी श्रद्धानन्द जी का सर्वस्व त्यागी स्वरूप प्रत्यक्ष होता है। उन्होंने जिस गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की वह आजादी व उसके कुछ वर्षों बाद तक फूला फला। वर्तमान स्वरूप स्वामी श्रद्धानन्द जी व महर्षि दयानन्द के विचारों व भावनाओं के अनुकूल हमें प्रतीत नहीं होता। स्वामी श्रद्धानन्द जी की यह जीवनी स्वामी श्रद्धानन्दनाम से हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोन सिटीद्वारा प्रकाशित की गई है। यदि किसी को आदर्श आर्य के जीवन के दर्शन करने हों तो वह आपको इस जीवनी में स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन को पढ़कर मिलेगा। स्वामी जी का जीवन बहुआयामी था। उन्होंने देश की आजादी व समाज सुधार के अनेक कार्यों को किया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे रैम्जे मैकडोनाल्ड ने उन्हें जीवित ईसामसीह की उपाधि दी थी। स्वामी जी की आत्मकथा कल्याण मार्ग का पथिकएक उत्तम आत्मकथा है। आर्य विद्वान डॉ. विनोद चन्द्र विद्यालंकार जी ने एक विलक्षण व्यक्तित्व - स्वामी श्रद्धानन्दनाम से स्वामी श्रद्धानन्द जी पर पुस्तक लिखी है। यह पुस्तक भी उत्तम कोटि का ग्रन्थ हैं। आप इन ग्रन्थों को पढ़कर अपने जीवन को श्रेष्ठ जीवन बनाने की प्रेरणा ले सकते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य